SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ :: शाह ताराचन्द्रजी:: [ २१ कुछ वर्षों से कवराड़ा (मारवाड़) के श्री जैन-संघ में कुछ प्रांतर झगड़ों के कारण कुसंप उत्पन हो गया था और धड़े पड़ गये थे । सेवक-सम्बन्धी झगड़े भी बढ़े हुये थे । वि० सं०२००८ ज्येष्ठ शु० २ रविवार को शाह दानमलजी कवराड़ा में धड़ों का मिटाना नत्थाजी की ओर से 'अट्ठाई-महोत्सव' किया गया था और शान्तिस्नात्र-पूजा भी बनाई गई और सेवक-सम्बन्धी झगड़ों थी । उपा० मु० हीरमुनिजी के शिष्य मु० सुन्दरविजयजी और सुरेन्द्रविजयजी इस अवसर पर का निपटारा करना वहाँ पधारे हुये थे। आप (ताराचंद्रजी) भी पधारे थे । संघ आन्तर-कुसंप से तंग आ रहा था । योग्यावसर देख कर कवराड़ा के संघ ने दोनों सज्जन मु० सुन्दरविजयजी और ताराचंद्रजी को मिलकर संघ में पड़े धड़ों का निर्णय करने का एवं सेवक-संबंधी झगड़ों को निपटाने का भार अर्पित किया और स्वीकार किया कि जो निर्णय ये उक्त सज्जन देंगे कवराड़ा-संघ उस निर्णय को मानने के लिये बाधित होगा। संघ में धड़ेबंदी होने के प्रमुख कारण ये थे कि (१) पांच घरों में पंचायती रकम कई वर्षों से बाकी चली आ रही थी और वे नहीं दे रहे थे, (२) सात घरों में खरड़ा-लागसंबंधी रकम बाकी थी और वे नहीं दे रहे थे, (३) एक सज्जन में लाण की रकम बाकी थी, (४) सात घर अपनी अलग कोथली अर्थात् अपने पंचायती आय-व्यय का अलग नामा रखते थे (५) मंदिर और संघ की सेवा करने वाले सेवक की लाग-भाग का प्रश्न जो मंहगाई के कारण उत्पन्न हुआ था संघ में धड़ा-बंदी होने के कारण सुलझाया नहीं जा सका था । मु० सा० सुन्दरविजयजी और श्री ताराचंद्रजी ने धड़ेबंदी के मूल कारणों पर गंभीर विचार करके वि० सं० २००६ माघ कृ. ७ को अपने हस्ताक्षरों से प्रामाणित करके निर्णय प्रकाशित कर दिया। कवराड़ा के संघ में संप का प्रादुर्भाव उत्पन्न हुआ और धड़ा-बंदी का अंत हो गया। जैसा पूर्व परिचय देते समय लिखा जा चुका है कि श्री वर्धमान जैन बोर्डिंग हाऊस, सुमेरपुर के जन्मदाता आप और मास्टर भीखमचंद्रजी हैं। आप के हृदय में उक्त छात्रालय के भीतर एक जिनालय बनवाने की अभिलाषा श्री वर्धमान न बोर्डिङ्ग भी छात्रालय के स्थापना के साथ ही उद्भूत हो गई थी। आपकी अथक श्रमशीलता हाउस, सुमेरपुर में श्री महा- के फलस्वरूप पिछले कुछ वर्षों पूर्व श्री महावीर-जिनालय का निर्माण प्रारम्भ हो गया वीर-जिनालय की प्रतिष्ठा था; परन्तु महंगाई के कारण निर्माणकार्य धीरे २ चलता रहा था । इसी वर्ष वि० सं० २०१० ज्येष्ठ शु० १० सोमवार ता० २२-६-१९५३ को उक्त मन्दिर की उपा० श्रीमद् कल्याणविजयजी के करकमलों से प्रतिष्ठा हुई और उसमें मूलनायक के स्थान पर वि० सं० १४६६ माघ शु० ६ की पूर्वप्रतिष्ठित श्री वर्धमानस्वामी की भव्य प्रतिमा महामहोत्सव पूर्वक विराजमान करवाई गई । इस प्रतिष्ठोत्सव के शुभावसर पर १११ पाषाण-प्रतिमाओं की और ३५ चांदी और सर्वधातु-प्रतिमाओं की भव्य मण्डप की रचना करके अंजनश्लाका करवाई गई थी। मन्दिर निर्माण में अब तक लगभग पेतीस सहस्र रुपया व्यय हो चुका है, इस द्रव्य के संग्रह करने में तथा प्रतिष्ठोत्सव में आपका सर्व प्रकार का श्रम मुख्य रहा है। __ स्टे. राणी मण्डी में श्री शांतिनाथ-जिनालय का जीर्णोद्धार करवाना अपेक्षित था। आपकी प्रेरणा पर ही उक्त जिनालय का जीर्णोद्धार रुपया दस सहस्र व्यय करके करवाया गया था, जिसमें चार सहस्र रुपया श्री शांतिनाथ-जिनालय स्टे. 'श्री गुलाबचन्द्र भभूतचन्द्र' फर्म ने अर्पित किया था। स्टे० राणी-मण्डी में आपका राणी का जीर्णोद्धार अच्छा संमान है और प्रत्येक धर्म एवं समाज-कार्य में आपकी संमति और सहयोग
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy