SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 250
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ :: मंत्री पृथ्वीपाल द्वारा विनिर्मित विमलवसति-हस्तिशाला :: [ t हस्तिशाला आठसौ वर्ष प्राचीन है। फिर भी हस्तियों के लेख, हस्तियों पर भारूड़ मूर्तियों के पूर्ण अथवा खण्डित रूपों के अवलोकन से विमलशाह के वंश की प्रतिष्ठा और गौरव का भलीविध परिचय मिलता है कि इस वंश ने गूर्जरदेश और उसके सम्राटों की सेवायें निरन्तर अपनी आठ पीढ़ी पर्य्यन्त की। विमलशाह उन सर्व में अधिक गौरवशाली और कीर्तिवान् हुआ। इस आशय को उसके वंशज पृथ्वीपाल ने उसकी छत्र—मुकुटधारीमूर्ति बनवाकर तथा अश्व पर आरूढ़ करके उसको स्वविनिर्मित-हस्तिशाला में प्रमुख स्थान पर संस्थापित करके प्रसिद्ध किया । एक भी चामरधर की मूर्ति इस समय विद्यमान नहीं है, केवल उनके पादचिह्न प्रत्येक हस्ति की पीठ पर विद्यमान हैं। महावत-मूर्तियों में से केवल नेढ़ और आनन्द के हस्तियों पर उनकी मूर्तियाँ रही हैं, शेष अन्य हस्तियों पर उनके लटकते हुये दोनों पैर रह गये हैं । जगदेव के हस्ति के नीचे एक घुड़सवार की मूर्ति है । इसका आशय उसके ठक्कुर होने से है ऐसा मेरा अनुमान है। विशेष बात जो इस हस्तिशाला में हस्तियों पर आरूढ मूर्तियों के विषय में लिखनी है वह यह है कि प्रत्येक मूर्ति के चार-चार हाथ हैं। चार हाथ आज तक केवल देवमूर्तियाँ के ही देखे और सुने गये हैं। मेरे अनुमान से यहाँ पुरुषप्रतिमाओं में चार हाथ दिखाने का कलाकार और निर्माता का केवल यह आशय रहा है कि इन सच्चे गृहस्थ पुरुषवरों ने चारों हाथों अपने धन और पौरुष का धर्म, देश और प्राणी-समाज के अर्थ खुल कर उपयोग किया ।* हस्तिशाला चारों ओर दिवारों से ढके एक कक्ष में है। इसके पूर्व की दिवार में एक लघुद्वार है, जो अभी बन्द है। इस द्वार के बाहर चौकी बनी हुई है। चौकी के अगले दोनों स्तंभों में प्रत्येक में आठ-आठ करके जिनेश्वर भगवानों की १६ सोलह मूर्तियाँ खुदी हुई हैं । इन स्तम्भों पर तोरण लगा है । तोरण के प्रथम वलय में पाठ, दूसरे में अट्ठाईस और तीसरे वलय में चालीस; इस प्रकार कुल छहत्तर जिनेश्वर मूर्तियाँ बनी हुई हैं । इस प्रकार स्तम्भ और तोरण दोनों में कल बानवें मूर्तियाँ हुई। हो सकता है चौवीस अतीत, चौवीस अनागत, चौवीस वर्तमान और बीस विहरमान भगवानों की ये मूत्तियाँ हों। इसी तोरण के पीछे के भाग में बहत्तर जिनप्रतिमायें और खुदी हुई हैं । ये तीनों चौवीसी हैं । चौकी के छज्जे में भी दोनों तरफ जिन चौवीसी बनी है। समस्त हस्तिशाला के बाहर के चारों ओर के छज्जों के ऊपर की पंक्ति में पद्मासनस्थ प्रतिमायें खुदवा कर एक चौवीसी बनाई गई है । हस्तिशाला के पश्चिमाभिमुख द्वार के दोनों ओर की अवशिष्ट दिवाल झालीदार पत्थरों से बनी है। *अविवाहित दो हाथ वाला और विवाहित चार हाथ वाला अर्थात् गृहस्थ कहलाता है। यहाँ स्त्री और पुरुष दोनों ने अपने चारों हाथों से रहस्थाश्रम को धन, बल, पौरुष का उपयोग करके सफल किया। वैसे तो सब ही गृहस्थ चार हाथ वाले होते हैं, परन्तु चार हाथ वाले सफल और सच्चे मृदस्थ तो वे हैं, जिन्होंने अर्थात् दोनों स्त्री और पुरुष ने धर्म, देश और समाज के हित तन, मन, धन का पूरा २ उपयोग किया हो। मैं ता०२२-६-५१ से २६-६-५१ तक विमलवसति और लूणवसति का अध्ययन करने के हेतु देलवाड़ा में रहा । जैसा मैंने देखा और समझा वैसा मैंने लिखा है। मुनिराज साहब श्री जयन्तविजय जीविरचित 'आबू' भाग ? मेरे अध्ययन में सहायक रहा है। -लेखक
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy