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________________ :: उपदेष्टा श्रीमद् विजययतीन्द्रमरिजी:: सं० २००८ में थराद, सं० २०१० में भाण्डवपुर-इन नगरों में आपश्री ने नवीन मन्दिरों, प्राचीन मन्दिरों में नवीन प्रतिमाओं की तथा नवनिर्मित गुरुसमाधि-मन्दिरों की प्राणप्रतिष्ठायें करवाई। वागरा, पाहोर, सियाणा एवं थराद और भाण्डवपुर में हुई प्रतिष्ठायें विशेष प्रभावक रहीं हैं। वागरा में जैसी प्रतिष्ठा हुई, वैसी प्रतिष्ठा व्यवस्था, शोभा, व्यय की दृष्टियों से इन वर्षों में शायद ही कहीं मरुधर-प्रान्त में हुई होगी। संघयात्रा-वि० सं० १९६६ में भूति से संघपति शाह देवीचन्द्र रामाजी की ओर से गोड़दाद-पंचतीर्थों की यात्रार्थ आपश्री की अधिनायकता में संघ निकाला गया था। शिक्षणालयों का उद्घाटन-बागरा, सियाणा, आकोली, तीखी, भूति, आहोर आदि अनेक ग्राम, नमरों में आपश्री के सदुपदेशों से गुरुकुल, पाठशालायें खोली गई थीं। बागरा, आहोर में कन्यापाठशालाओं की स्थापनायें आपश्री के सदुपदेशों से हुई थीं। मण्डलों की स्थापनायें—अधिकांश नगरों में आपश्री के सदुपदेशों से नवीन मण्डलों की स्थापनायें हुई और प्राचीन मण्डलों की व्यवस्थायें उन्नत बनाई गई; जिनसे संप्रदाय के युवकवर्ग में धर्मोत्साह, समाजप्रेम, संगठनशक्ति की अतिशय वृद्धि हुई। साहित्य-सेवा-जिस प्रकार आपश्री ने धर्मक्षेत्र में सोत्साह एवं सर्वशक्ति से शासन की सेवा करके अपने चारित्र को सफल बनाने का प्रयत्न किया, उसी प्रकार आपश्री ने साहित्य-सेवा व्रत भी उसी तत्परता, विद्वचा से निभाया । इस काल में आपश्री के विशेष महत्त्व के ग्रंथ 'अक्षयनिधितप' 'श्रीयतीन्द्रप्रवचन भाग २', 'समाधानप्रदीप', 'श्रीभाषण-सुधा' और श्री 'जैन-प्रतिमा-लेख-संग्रह' प्रकाशित हुये हैं। जैन-जगती–पाठकगण 'जैन-जगती' से भलिविध परिचित होंगे ही। वह आपश्री के सदुपदेश एवं सतवप्रेरणाओं का ही एक मात्र परिणाम है। मेरा साहित्व-क्षेत्र में अवतरण ही 'जैन-जगती' से ही प्रारंभ होता है, जिसके फलस्वरुप ही आज 'छत्र-प्रताप', 'रसलता', 'सट्टे के खिलाड़ी', 'बुद्धि के लाल' जैसे पुष्प भेंट करके तथा 'राजिमती-गीति-काव्य', 'अरविंद सतुकान्त कोष', 'आज के अध्यापक'(एकांकी नाटक), 'चतुर-चोरी' आदि काव्य, कोष, नाटकों का सर्जन करता हुआ 'प्राग्वाट-इतिहास' के लेखन के भगीरथकार्य को उठाने का साहस कर सका हूँ। वि० सं० २००० में आपश्री का चातुर्मास सियाणा में था। चातुर्मास के पश्चात् आपश्री बागरा पधारे । पावावासी प्राग्वाटज्ञातीय बृहद्शाखीय लांबगोत्रीय शाह ताराचन्द्रजी मेघराजजी आपश्री के दर्शनार्थ बापरा प्राग्वाट-इतिहास का लेखन आये थे। उन दिनों में मैं भी श्री राजेन्द्र जैन गुरुकुल' बामरा में प्रधानाध्यापक था। और उसमें आपश्री का स्व. मध्याहि के समय जब अनेक श्रावकगण आपश्री के समक्ष बैठे थे, उनमें श्री ताराचंद्रजी र्णिम सहयोग भी थे। प्रसंगवश घर्चा चलते २ ज्ञातीय इतिहासों के महत्व और मृन्य तक बढ़ चली। कुछ ही वर्षों पूर्व 'ओसवाल-इतिहास' प्रकाशित हुआ था। आपश्री ने प्राग्वाटज्ञाति के इतिहास लिखाने की प्रेरणा बैठे हुये सज्जनों को दी तथा विशेषतः श्री ताराचन्द्रजी को यह कार्य ऊठाने के लिये उत्साहित किया। गुरुदेव का सदुपदेश एवं शुभाशीर्वाद ग्रहण करके ताराचन्द्रजी ने प्राग्वाट-इतिहास लिखाने का प्रस्ताव स्वीकृत कर लिया। ताराचन्द्रजी बड़े ही कर्तव्यनिष्ठ हैं और फिर गुरुमहाराज साहब के अनन्य भक्त । प्राग्वाट-इतिहास लिखाना अब आपका सर्वोपरि उद्देश्य हो गया। किससे लिखवाना, कितना व्यय होगा आदि प्रश्नों को लेकर आपश्री और श्री ताराचन्द्रजी में पत्र-व्यवहार निरंतर होने लगा।
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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