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________________ ६३ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान है संसार अवस्था में जीवों का देह प्रमाणाकार । सिद्ध दशा में निराकार है पर है आत्म प्रदेशाकार ॥ १३. ॐ ह्रीं कर्मक्षयविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । अक्षयस्वरूपोऽहम् | कर्म नाश करने में सक्षम एक शुद्ध चिद्रूप महान । इसका ही स्मरण करो यह स्वाध्याय निज अधिक प्रधान ॥ स्वाध्याय फल जब मिलता है तब चिद्रूप प्रकट होता । सांसारिक दुख का सागर भी पूरी तरह विघट होता ॥१३॥ ॐ ह्रीं द्वितीय अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (१४) उत्तमं स्मरण शुद्धचिद्रूपोऽहमिति स्मृतेः । कदापि क्वापि कस्यापि श्रुतं दृष्टं न केनचित् ||१४|| अर्थ- " मैं शुद्धचिद्रूप हूं" ऐसा स्मरण ही सर्वोत्तम स्मरण माना गया है। क्योंकि उससे उत्तम स्मरण कहीं भी किसी भी स्थान पर न हुआ न सुना और न देखा । १४. ॐ ह्रीं ब्रह्मधामस्वरूपाय नमः । निजबोधधामस्वरूपोऽहम् । छंद ताटंक मैं ही हूँ चिद्रूप शुद्ध सर्वोत्तम यह स्मरण करो । इससे उत्तम नहीं स्मरण यह सदैव चिन्तवन करो || प्रतिपल प्रतिक्षण सतत अनवरत ध्याओ अब शुद्धात्म स्वरूप । यही शुद्ध चिद्रूप श्रेष्ठ है मंगलमयी महान अनूप ॥१४॥ ॐ ह्रीं द्वितीय अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (१५) शुद्धचिद्रूपसदृशं ध्येयं नैव कदाचन । उत्तमं क्वापि कस्यापि भूतमस्ति भविष्यति ||१५|| अर्थ- शुद्ध चिद्रूप के समान उत्तम और ध्येय ध्यान योग्य पदार्थ न कहीं हुआ, हैं न होगा इसलिये शुद्धचिद्रूप का ही ध्यान करना चाहिये ।
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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