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________________ ६४ तत्त्वज्ञान तरंगिणी द्वितीय अध्याय पूजन धर्म अधर्म काल नभ का आकार प्रदेशों के अनुसार । प्रदेशत्व गुण सब द्रव्यों में हम न बना सकते आकार || १५. ॐ ह्रीं भूतभविष्यादिकालविकल्परहितचिद्रूपाय नमः । मंगलस्वरूपोऽहम् । इस समान उत्तम न कहीं है और न होता यह मानो । यही शुद्ध चिद्रूप ध्येय है ध्यान योग्य ये ही जानो || सर्वोत्तम सर्वोच्च स्वपद का धारी है महान चिद्रूप | यही शुद्ध है यही बुद्ध है यही नियम है आत्म स्वरूप ॥१५॥ ॐ ह्रीं द्वितीय अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (१६) ये याता यांति यास्यन्ति योगिनः शिवसंपदं । समासाद्यैव चिद्रूपं शुद्धमानंदमंदिरम् ॥१६॥ अर्थ- जो योगी मोक्ष नित्यानंद रूपी सम्पत्ति को प्राप्त हुए होते हैं, और होंगे, उसमें शुद्धचिद्रूप की आराधना ही कारण है। बिना शुद्धचिद्रूप की भले प्रकार आराधना के कोई मोक्ष नित्यानंद नहीं प्राप्त कर सकता। क्योंकि यह शुद्ध चिद्रूप ही आनंद प्रदान करने वाला है। १६. ॐ ह्रीं शुद्धानन्दमन्दिरस्वरूपाय नमः । शिवसंपत्तिस्वरूपोऽहम् । जो भी योगी मोक्ष संपदा पाते आगे पाएंगे । वे चिद्रूप शुद्ध आराधन करके ही शिव जाएंगे | बिना शुद्ध चिद्रूप मोक्ष मंदिर की होती प्राप्ति नहीं । . बिना शुद्ध चिद्रूप नित्य आनंद पूर्ण की व्याप्ति नहीं ॥१६॥ ॐ ह्रीं द्वितीय अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (१७) द्वादशांगं ततो बाह्यं श्रुतं जिनवरोदितम् । उपादेयता शुद्धचिदरूपस्तत्र भाषितः ॥१७॥ अर्थ- भगवान जिनेन्द्र ने अंग प्रविष्ट (द्वादशांग) और अंग बाह्य दो प्रकार के शास्त्रों
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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