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________________ ६२ तत्त्वज्ञान तरंगिणी द्वितीय अध्याय पूजन प्रदेशत्व गुण बतलाता प्रत्येक द्रव्य का है आकार | सुख दुख का संबंध नहीं है चाहे जैसा हो आकार || पर वह आदरणीय प्रशंसा योग्य बुद्धि का धारी है । एक शुद्ध चिद्रूप ध्यान में रत विशुद्ध अविकारी है ॥११॥ ॐ ह्रीं द्वितीय अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (१२) रेणूनां कर्मणः संख्या प्राणिनो वेत्ति केवली । न वेदमीति क्व यांत्येते; शुद्धचिद्रूपचिंतने ॥१२॥ अर्थ- आत्मा के साथ कितने कर्म की रेणुओं का सम्बन्ध हता है? इस बात की सिवा केवली के अन्य कोई भी मनुष्य गणना नहीं कर सकता। परन्तु न मालूम शुद्धचिद्रूप की चिंता करते ही वे अगणित भी कर्म वर्गणायें कहां लापता हो जाती है । १२. ॐ ह्रीं कर्मरेणूसंख्याविकल्परहितज्ञानस्वरूपाय नमः । अनन्तगुणैश्वर्यस्वरूपोऽहम् । वीरछंद कितनी कर्म रेणुओं का आत्मा से होता है संबंध । मात्र जानते श्री केवली आप न जान सकेंगे बंध ॥ जब चिद्रूप शुद्ध की चिन्ता उर में जगती है भरपूर । तब ही कर्म वर्गणाएँ आत्मा से हो जाती हैं दूर || सभी कर्म निर्जरित अवस्था को पाकर हो जाते क्षीण । ऐसा यह चिद्रूप शुद्ध है एक मात्र है ज्ञान प्रवीण ॥१२॥ ॐ ह्रीं द्वितीय अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (१३) तं चिद्रूपं निजात्मान स्मर शुद्ध प्रतिक्षणम् । यस्य स्मरणमात्रेण सद्यः कर्मक्षयोभवेत् ॥१३॥ अर्थ- हे आत्मन्! तू शुद्ध चिद्रूप का प्रतिक्षण स्मरण कर। जिस (शुद्धचिद्रूप) के स्मरण मात्र से शीघ्र ही कर्म नष्ट हो जाते हैं ।
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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