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________________ ६१ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान श्रद्धा गुण चौथे में होता ज्ञान तेरवें में हो पूर्ण । सिद्ध अवस्था में होता है प्राणी को चारित्र आपूर्ण ॥ एक शुद्ध चिद्रूप ध्यान से होता जिस प्रकार संतोष । ऐसा सुख संतोष किसी से कभी न होता यह गुण कोष॥ कामधेनु अमृत चिन्तामणि कल्पवृक्ष सुर असुर प्रसिद्ध । भोग भूमि सुख महिमामय का विविध सौख्य भी विश्व प्रसिद्ध॥ नश्वर सांसारिक सुख पाकर मूढ़ों को होता संतोष । एक शुद्ध चिद्रूप शाश्वत संतोषों का पावन कोष ॥१०॥ | ॐ ह्रीं द्वितीय अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (११) ना दुर्वर्णो विकर्णो गतनयनयुगो वामनः कुब्जको वा, छिन्नघ्राणः कुशब्दो, विकलकरयुतो, वागविहीनोऽपि पं० । खंजो निःस्वोऽनधीत श्रुत इह बधिरः कुष्टरोगादियुक्तः श्लाघ्यः चिद्रूपचिंतापर इतरजनो, नैव सुज्ञानवद्भिः ॥११॥ अर्थ- जो पुरुष शुद्धचिद्रूप की चिंता में रत है सदा शुद्धचिद्रूप का विचार करता रहता है। वह चाहे दुर्बल काला-कबरा बूचा अन्धा बौना कुबड़ा नकटा कुशब्द बोनलनेवाला हाथ रहित टोंटा गूंगा लूला गंजा दरिद्र मूर्ख बहरा और कोढ़ी आदि कोई भी क्यों न हों, विद्वानों की दृष्टि में प्रशंसा के योग्य है। सब लोग उसे आदरणीय दृष्टि से देखते हैं। किन्तु अन्य सुन्दर भी मनुष्य यदि शुद्धचिद्रूप की चिंता से विमुख है, तो उसे कोई अच्छा नहीं कहता। ११. ॐ ह्रीं दुर्वर्णकुशब्दादिरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । शुद्धचिद्घनस्वरूपोऽहम् । .. छंद ताटंक जो चिद्रूप शुद्ध की चिन्ता में रत है वह ज्ञानी है । वही प्रशंसा योग्य जगत में निकट भव्य निज ध्यानी है ॥ वह लंगड़ा हो या लूला हो बहरा हो या हो काना | अंधा काला दुबला पतला रोगी हो या दुखियाना ॥ शुद्याप
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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