SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८ तत्त्वज्ञान तरंगिणी प्रथम अध्याय पूजन जब परिणमन स्वभाव द्रव्य का हो जाता है सम्यक् ज्ञान । पर सन्मुखता क्षय हो जाती आत्म स्वसन्मुख होता ज्ञान || बीरछंद यह शरीर तो सप्त धातु का पिंड रक्त मज्जादिक युक्त। सतत चेतना रहित त्यागने योग्य विविध जड़ कण संयुक्त ॥ इसके भीतर देखन जानन हारा जो है वह आत्मा । वही शुद्ध आत्मा मैं ही हूँ मैं ही तो हूँ परमात्मा ॥५॥ ॐ ह्रीं प्रथम अध्याय समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (६) आजन्म यदनुभूतं तत्सर्व यः स्मरन् विजानाति । कररेख : वत् पश्यति सोऽहं बद्धोऽषि कर्मणाऽत्यंतम् ||६|| अर्थ- जन्म से लेकर आज तक जो पदार्थ अनुभवे हैं उन सब को स्मरण कर हाथ की रेखाओं के समान जो जानता देखता है वह ज्ञानावरण आदि कर्मो से कड़ी रीति से जकड़ा हुआ भी मैं वास्तव में शुद्ध चिद्रूप ही हूं । ६. ॐ ह्रीं ज्ञानावरणादिकर्मबंधनरहितनिर्बन्धस्वरूपाय नमः । ज्ञानानन्दस्वरूपोऽहम् । ताटंक जब से जनम लिया तब से ही देखन जानन हारा है । ज्ञानावरणी कर्मो ने घेरा है किन्तु न हारा है ॥ वास्तव में चिद्रूष शुद्ध मैं ही तो हूँ अनुभव में दक्ष | जो देखा जाना है अब तक जान रहा हूँ मैं प्रत्यक्ष ॥६॥ ॐ ह्रीं प्रथम अध्याय समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. i (७) श्रुतनागमात् त्रिलोके त्रिकालजं चेतनेतरं वस्तु | यः पश्यति जानाति च सोऽहं चिद्रूषलक्षणो नान्यः ||७|| अर्थ- तीनों लोक और कालों में विद्यमान चेतन और जड़ पदार्थो को आगम से श्रवण कर जो देखता जानता है वह चैतन्यरूप लक्षण का धारक मैं स्वात्मा हूं। मुझ सरीखा
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy