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________________ ३९ RAATMAVIMARAihindi श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान दृष्टि निमित्ताधीन नष्ट हो जाती होती निज आधीन । अपनी ही महिमा आती है प्राणी हो ता ज्ञान प्रवीण || अन्य कोई नहीं हो सकता। इन श्लोकों से आचार्य उपाध्याय और सामान्य मुनियों का भी शुद्ध चिदूप पद से प्रहण किया है । स्वयं ग्रन्थकार भी शुद्ध चिद्रूप पद से किन किन का ग्रहण हैं इस बात को दिखाते है। ७. ॐ ह्रीं त्रिकालत्रिलोकगतचेतनेतरवस्तुविकल्परहितशुद्धस्वरूपाय नमः । ज्ञायकस्वरूपोऽहम् । ताटंक तीन लोक तीनों कालों में विद्यमान जो जड़ चेतन । आगम से सुन देख रहा हूं जान रहा हूं मैं चेतन || मैं चेतनारूप लक्ष्मी का धारी निर्मल आत्मा हूँ । मुझसे बढ़कर कहीं न कोई मैं ही तो शुद्धात्मा हूँ ॥७॥ ॐ ह्रीं प्रथम अध्याय समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।। (८) शुद्धविद्रूप इत्युक्त श्रेयाः पंचाहदादयः । अन्येऽपि तादृशाः शुद्धशब्दस्य बहुभेदतः ॥८॥ अर्थ-शुद्ध चिद्रूष पद से यहां पर अर्हत सिद्ध आचार्य उपाध्याय और सर्वसाधु इन पांचो परमेष्ठियों का ग्रहण है तथा इनके समान अन्य शुद्धात्मा भी शुद्धचिद्रूप शब्द से लिये हैं क्योंकि शुद्ध शब्द के बहुत से भेद है। ८. ॐ ह्रीं निर्मलशुद्धचिद्रूपाय नमः । समतास्वरूपोऽहम् । ताटंक एक शुद्ध चिद्रूष शब्द में पांचों परमेष्ठी गर्भित । अहंत सिद्धाचार्य साधु अरुउपाध्याय पांचों शोभित ॥ शुद्ध शब्द के बहुत भेद हैं बहुत अर्थ हैं शुद्ध स्वरूप । इसके सम ही अन्य सभी हैं शुद्ध आत्माएँ चिद्रूप ॥८॥ | ॐ ह्रीं प्रथम अध्याय समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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