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________________ ३७ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान पूर्ण शुद्ध पर्याय जीव की यही कार्य परमात्मा जान । इससे सहज शुद्ध कारण परमात्मा का हो जाता ज्ञान || | ॐ ह्रीं प्रथम अध्याय समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । . स्पर्शरसगंधवणे शब्दैर्मुक्तो निरंजनः स्वात्मा । तेन च स्वैरग्राह्योऽसावनुभवनाद्ग्रहीतव्यः ॥४॥ अर्थ-यह स्वात्मा स्पर्श रस गंध वर्ण और शब्दों से रहित है निरंजन है। इसलिये किसी इन्द्रिय द्वारा गृहीत न होकर अनुभव से स्वानुभव प्रत्यक्ष से इसका ग्रहण होता है । ४. ॐ ह्रीं स्पर्शरसगन्धवर्णरहितचिन्मयस्वरूपाय नमः । अशब्दस्वरूपोऽहम् । - ताटंक यह तो है रस गंध वर्ण स्पर्श रहित अरु शब्दातीत । है प्रत्यक्ष स्वानुभव से ही इन्द्रिय द्वारा नहीं गृहीत || अन्तर्मुख जब प्राणी होता तब होता है इसका ज्ञान । यही शुद्ध चिद्रूप आत्मा परम शुद्ध है लो पहचान || नित्य निरंजन यही स्वात्मा अनुभव से होता है प्राप्त । इसका अवलंबन लेने से प्राणी हो जाता है आप्त ॥४॥ ॐ ह्रीं प्रथम अध्याय समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । सप्तानां धातूनां पिंडो देहो विचेतनो हेयः । तन्मध्यस्थोऽवैतीक्षतेऽखिलं यो हि सोऽहं चित् ||५|| अर्थ- यह शरीर शुक्र रक्त मज्जा आदि सात घातुओं का समुदाय स्वरूप है। चेतना शक्ति से रहित और त्यागने योग्य है एवं जो इसके भीतर समस्त पदार्थों को देखने जानने वाला है वह मैं आत्मा हूं। ५. ॐ ह्रीं सप्तधातुरहितशुद्धात्मस्वरूपाय नमः । निर्देहस्वरूपोऽहम् ।
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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