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________________ ३६ तत्त्वज्ञान तरंगिणी प्रथम अध्याय पूजन उपादेय अरु हेय ज्ञान सब, तत्त्व ज्ञान से ही होता । पर्यायों मे स्वतः सिद्ध वैभव भी सहज प्रगट होता || परमाणुओं से रहित है वही शुद्ध चिद्रूप है । २. ॐ ह्रीं कर्मनोकर्मरहितशुद्धचैतन्यरवरूपाय नमः । निरंजनचिद्रूपोऽहम् । ताटंक यही शुद्ध चिद्रूप जानकर इसको पाने का ही श्रम । सतत करूँ सक्षम होकर मैं ज्ञान प्राप्ति का ही उद्यम || युगपत लोकालोक जानता नो कर्मो से रहित महान | कर्म वर्गणाओं से विरहित है निष्कर्म परम बलवान || एक शुद्ध चिद्रूप. शक्ति जब निज अंतर में जग जाती । सकल कलुषता धुल जाती है इसकी ही महिमा आती ॥२॥ ॐ ह्रीं प्रथम अध्याय समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (३) अर्थान् यथास्थितान् सर्वान् समं जानाति पश्यति । निराकुलो गुणी योऽसौ शुद्धचिद्रूप उच्यते ॥३॥ अर्थ- जो पदार्थ जिस रूप में स्थित है उन्हें उसी रूप से एक जानने देखनेवाला आकुलता रहित और समस्त गुणों का भण्डार शुद्ध चिद्रूप कहा जाता है। यहां इतना विशेष है कि पहिले श्लोक से सिद्धों को शुद्ध चिद्रूप कहा है और इस श्लोक में अर्हत भी शुद्ध चिद्रूप है यह बात बतलाई है। ३. ॐ ह्रीं विज्ञानघनस्वरूपाय नमः । निराकुलस्वरूपोऽहम् । ताटंक जो पदार्थ जैसा सुस्थित है उसी तरह मैं जान रहा । देख रहा आकुलता विरहित वही शुद्ध चिद्रूप कहा || गुण अनंत भंडार यही है यही सिद्ध शिव तीनों काल । ये ही तो अरहंत महा प्रभु यही शुद्ध चिद्रूप विशाल ॥३॥
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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