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________________ ३५ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान द्रव्य और गुण का परिचय दृढ़ तत्त्व माध्यम से होता । द्रव्यों का परिणमन सदा, पर्याय स्वभाव सहित होता | गुण अर्घ्य बनाऊं स्वामी। दुख क्षय हो अंतर्यामी ॥ अब तो अनर्घ्य पद पाऊं । दृढ़ तत्त्वज्ञान उर लाऊं || ॐ ह्रीं प्रथम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अनर्घ्य पद प्राप्ताय अर्घ्य नि । अर्ध्यावलि प्रथम अध्याय शुद्ध चिद्रूप के लक्षण का विधान प्रणम्य शुद्धचिद्रूपं सानंद जगदुत्तमम् । तल्लक्षणादिकं वच्मि तदर्थी तस्य लब्धये ॥१॥ अर्थ- निराकुलतारूप अनुपम आनन्द भोगने वाले, समस्त जगत में उत्तम शुद्ध चैतन्य स्वरूप को नमस्कार कर उसकी प्राप्ति का अभिलाषी में उसके लक्षण आदि का प्रतिपादन करता हूं। १. ॐ ह्रीं शुद्धचिद्रूपस्वरूपाय नमः । आनन्दघनस्वरूपोऽहम् । छंद ताटंक परम निराकुल सुख स्वरूप आनंद रूप जग में उत्तम । एक शुद्ध चैतन्य स्वरूप ज्ञान दर्शन ही सर्वोत्तम ॥ इसको ही पाने की रुचि को सादर वन्दन करता हूं। इसको ही पाने की विधि का अब प्रतिपादन करता हूं॥१॥ • ॐ ह्रीं प्रथम अध्याय समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (२) पश्यत्यवैति विश्वं युगपपत्रोकर्मकर्मणामणुभिः । अखिलैर्मुक्तो योऽसौ विज्ञेयः शुद्धचिदूपः ॥२॥ अर्थ- जो समस्त जगत को एक साथ देखने जानने वाला है। नो कर्म और कर्म के
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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