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________________ २६५ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान महाव्रत धारकों को मोक्ष सुख मिलता सदा । ज्ञान निज कैवल्य का अंबुज ह्रदय खिलता सदा ॥ जैसे निर्मल वस्त्र रत्न सब सोना चाँदी मात्र भवन सब। उत्तम प्रशंस्य माने जाते त्यों उत्तम चिद्रूप सुहाते ॥ परम शुद्ध चिद्रूप प्राप्ति श्रम त्रिभुवन में ये ही सर्वोत्तमा१॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (२) । रागादिलक्षणः पुंसि संक्लेसोऽशुद्धता मता | तन्नासो येन चांशेन तेनांशेन विशुद्धता ॥२॥ अर्थ- पुरुष में राग द्वेष आदि लक्षण का धारक संक्लेश अशुद्धपना कहा जाता है। और जितने अंश में राग द्वेष आदि का नाश हो जाता है उतने अंश में विशुद्धपना कहा जाता २. ॐ ह्रीं रागादिलक्षणारूपसंक्लेशरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । विरागनिलयस्वरूपोऽहम् । चौपायी ज्यों पुरुषों में राग द्वेष हैं अशुद्ध उर में संक्लेश है । राग द्वेष जितना जाता है उतने अंश शुद्धि पाता है || परम शुद्ध चिद्रूप प्राप्ति श्रम। त्रिभुवन में ये ही सर्वोत्तम॥२॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । येनोपायेन संक्लेशश्चिद्रूपाद्याति वेगतः । विशुद्धिरेति चिद्रूपे स विधेयो मुमुक्षणा ॥३॥ अर्थ- जो जीव मोक्षाभिलाषी हैं अपनी आत्मा को समस्त कर्मो से रहित करना चाहते हैं। उन्हें चाहिये कि जिस, उपाय से यह संक्लेश दूर हो। विशुद्धपना आवे। वह उपाय अवश्य करें। ३. ॐ ह्रीं संक्लेशनाशोपायविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । निरभिलाषसौख्यस्वरूपोऽहम् ।
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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