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________________ २६४ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी त्रयोदशम अध्याय पूजन पंच अणुव्रत धारकों को स्वर्ग सुख मिलता सहज । ज्ञान वृद्धिंगत हुआ तो आत्म सुख झिलता सहज ॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय मोक्षफल प्राप्ताय फलं नि. । नहीं ज्ञान के अर्घ्य उर में सजाए । तो पदवी अनर्घ्य भी मिलती कहाँ से || महामोह विष मैंने खाया सदा ही । तो भवदुख का पर्वत भी हिलता कहाँ से || करूं क्या बताओ मुझे प्रभु सुमति दो । मैं सन्मार्ग पाऊँ स्वकल्याण के हित ॥ परम शुद्ध चिद्रूप ही नित्य ध्याऊं । सतत अष्ट कर्मो के अवसान के हित || . ॐ ह्रीं त्रयोदशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अनर्घ्य पद प्राप्ताय अर्घ्य नि. । अर्ध्यावलि त्रयोदशम अधिकार शुद्ध चिद्रूप की प्राप्ति के लिए विशुद्धि की आवश्यकता का प्रतिपादन विशुद्धं वसनं श्लाध्यं रत्नं रुप्यं च यांचनम् । भाजनं भवनं सर्वयथा चिद्रूपकं तथा ॥१॥ . अर्थ- जिस प्रकार निर्मल वस्त्र रत्न चांदी सोना पात्र और भवन आदि पदार्त उत्तम और प्रशस्य गिने जाते हैं। उसी प्रकार यह शुद्धचिद्रूप भी अति उत्तम और प्रशस्य हैं। १. ॐ ह्रीं श्लाध्यरत्नरूप्यकाञ्चनादिविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । चैतन्यकाञ्चनस्वरूपोऽहम् । छंद चौपई
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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