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________________ २६३ . श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान पंच पापों की हवा में जो सदा उड़ते हैं । वे अधोगति. कोपा परभाव से ही जुड़ते हैं | करूं क्या बताओ मुझे प्रभु सुमति दो । ___ मैं सन्मार्ग पाऊँ स्वकल्याण के हित || परम शुद्ध चिद्रूप ही नित्य ध्याऊ । __ सतत अष्ट कर्मो के अवसान के हित ॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय मोहन्धकार विनाशनाय दीपं नि. । नहीं ध्यान की धूप पायी कभी भी । तो निज ध्यान कैसे कहाँ से लगाता || महा कष्टकारी इन कर्मो की सेना । कहो नाथ कैसे सदा को भगाता || करूं क्या बताओ मुझे प्रभु सुमति दो । मैं सन्मार्ग पाऊँ स्वकल्याण के हित ॥ परम शुद्ध चिद्रूप ही नित्य ध्याऊ । सतत अष्ट कर्मो के अवसान के हित || ॐ ह्रीं त्रयोदशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अष्टकर्म विनाशनाय धूपं नि. । नहीं ज्ञान फल मैंने पाये कभी भी । तो फिर मोक्ष फल कैसे मिलता बताओ । ये पाक फल मैंने भव विष के खाए । तो निर्वाण सुख कैसे मिलता जताओ || करूं क्या बताओ मुझे प्रभु सुमति दो । मैं सन्मार्ग पाऊँ स्वकल्याण के हित ॥ परम शुद्ध चिद्रूप ही नित्य ध्याऊ । सतत अष्ट कर्मों के अवसान के हित || -
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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