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________________ १९२ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी नवम अध्याय पूजन पर जीवों को सुखी दुखी करता हूँ येही अध्यवसान । पर मुझको सुख दुख देते हैं येही तो तेरा अज्ञान || पुष्टि के लिये इच्छानुसार इसकी प्रशंसा की है। परन्तु मुझे इस शरीर की प्रशंसा और निंदा से क्या प्रयोजन है? क्योंकि में निश्चयनय से शरीर कर्म और उनसे उत्पन्न हुये विकारों से रहित शुद्धचिद्रूप स्वरूप हूं। ८. ॐ ह्रीं दुर्गन्धादिमलभाजनरूपदेहरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । ब्रह्मदेवस्वरूपोऽहम् । यह देह महा दुर्गंधित मल का घर है । निन्दित कर्मो के द्वारा निर्मित घर है ॥ मूढ़ों ने बहुत प्रशंसा की है इसकी । पर सुखी न पल भर हुई आत्मा इसकी ॥ निन्दा व प्रशंसा से क्या मुझे प्रयोजन । मैं तो कर्मो से रहित शुद्ध हूं चिद्घन ॥ चिद्रूप शुद्ध ही शिव सुखकारी पाऊं । आनंद अतीन्द्रिय धारा ह्रदय सजाऊं ॥८॥ ह्रीं नवम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागममाय अर्घ्य नि. | कीर्ति र्वा पररंजनं खविषियं केचिनजं जीवितम्संतानं च परिग्रहं भयमपि ज्ञानं तथा दर्शनम् । अन्यस्याखिलवस्तुनो रुगयुतिं तद्धेतुमुदृिश्य च, कुर्युः कर्मविमोहिनो हि सुधियश्चिदरूपलब्धयै परम् IRI अर्थ- संसार में बहुत से मोही पुरुष कीर्ति के लिये काम करते हैं। अनेक दूसरों को प्रसन्न करने के लिये इन्द्रिय के विषयों की प्राप्ति के लिये अपने जीवन की रक्षा के लिये, संतान परिग्रह भय ज्ञान दर्शन तथा अन्य पदार्थों की प्राप्ति और रोग के अभाव के लिये काम करते हैं। और बहुत से कीर्ति आदि के कारणों के मिलाने के लिये उपाय सोचते रहते हैं परंतु जो मनुष्य बुद्धिमान हैं अपनी आत्मा को सुखी बनाना चाहते हैं वे शुद्धचिद्रूप की प्राप्ति के लिये ही कार्य करते हैं।
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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