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________________ १९३ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान आत्म शान्ति श्रद्धा को हरने वाला है अभिमान कुतर्क। ज्ञान ध्यान वैराग्य शत्रु है मनोत्पन्न यह तर्क वितर्क || ९. ॐ ह्रीं पररंजनादिविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । निजदेवस्वरूपोऽहम् । संसारी जन यश हेतु काम करते हैं । विषयादि भोग पाने को श्रम करते हैं | जो भेद ज्ञान की पावन निधि उर लाते । चिद्रूप शुद्ध की प्राप्ति वही कर पाते ॥ परबुद्धि छोड़ श्रम आत्मिक सुख हित करते । वे ही चिद्रूप शुद्ध पाते दुख हरते ॥ चिदू प शुद्ध · ही शिव सुखकारी पाऊं । आनंद अतीन्द्रिय धारा ह्रदय सजाऊं ॥९॥ ॐ ह्रीं नवम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागममाय अर्घ्य नि. । (१०) कल्पेशनागेशनरेशसंभवं चित्ते सुखं मे सततं तृणायते । कुस्त्रीरमास्थानकदेहदेहजात् सदेति चित्रं मनुतेऽल्पधीः सुखम् ॥१०॥ अर्थ- मैंने शुद्धचिद्रूप के स्वरूप को भले प्रकार जान लिया है इसलिये मेरे चित्त में देवेन्द्र नागेन्द्र के सुख जीर्णतृण सरीखे जान पड़ते हैं परंतु जो मनुष्य अल्पज्ञानी हैं। अपने और पर के स्वरूप का भले प्रकार ज्ञान नहीं रखते। वे भूमि स्त्रियां लक्ष्मी घर शरीर और पुत्र से उत्पन्न हुये सुख को जो कि दुःख स्वरूप है सुख मानते हैं। यह बड़ा आश्चर्य १०. ॐ ह्रीं क्लेशादिसुखरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । चित्कल्पेशोऽहम् । . मैं ने चिदू प शुद्ध को ही जाना है । चक्री इन्द्रिादिक सुख तृणवत माना है ॥ सांसारिक सुख तो दुख स्वरूप ही जाने । आश्चर्य मूढ़ इनमें अपना सुख माने ॥
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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