SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 200
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९१ . श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान जीवों को सुख दुख वास्तव में कर्मोदय से होता है | निज परिणामों से उपार्जित सुख दुख उसको होता है || अर्थ- काल के अनुसार धर्म कर्मो के आगमन के द्वार को रोकता है। पहिले का उपार्जन किया हुआ कर्म इंद्रियों के उत्तमोत्तम सुख व नाना प्रकार के क्लेश भुगाता है। जो पदार्थ जैसे और जिस रीति से हैं, वे उसी रीति से विद्यमान हैं। इसलिये है आत्मन्! तू उनके लिये किसी बात की चिता न कर। अपने शुद्धचिद्रूप की ओर ध्यान दे । ७. ॐ ह्रीं पूर्वार्जितसुखासुखविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । अतक्र्योऽहम् । राधिका कालानुसार उद्धार धर्म का होता । कालानुसार ही नाश धर्म का होता ॥ पहिले जो कर्म उपार्जित करके आया । उसके फल में सुख दुख व क्लेश बहु पाया ॥ जितने पदार्थ जैसे ज्यों जहाँ जमे हैं । उस रीति वर्तना करत हुए थमे हैं ॥ सब चिन्ता तज चिद्रूप शुद्ध ही ध्याओ । अपने स्वधर्म शाश्वत का ध्यान लगाओ ॥ चिदू प शुद्ध ही शिव सुखकारी पाऊं । आनंद अतीन्द्रिय धारा ह्रदय सजाऊं ॥७॥ ॐ ह्रीं नवम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागममाय अर्घ्य नि. । (८) दुर्गन्धं मलभाजनं कुविधिना निष्पादितं धातुभिरंग तस्य जनै र्निजार्थमखिलराख्या धृता स्वेच्छया । तस्याः किं मम वर्णनेन सततं किं निंदनेनैव च, चिद्रूपसस्य शरीर कर्म जनिताऽन्यस्याप्यहो तत्त्वतः ॥८॥ अर्थ- यह शरीर दुर्गन्धमय है। विष्टा मूत्र आदि मलों का घर है। निंदित कर्म की कृपा से मल मज्जा आदि धातुओं से बना हुआ है। तथापि मूढ़ मनुष्यों ने अपने स्वार्थ की
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy