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________________ १९० श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी नवम अध्याय पूजन जो सम्यक्त्व रत्न से शोभित बिन धन के वह धनी कहा। जो सम्यक्त्व रत्न से विरहित धन है पर निर्धनी कहा ॥ ऐसे विचार सर्वथा मोह से होते । जितने विकल्प हैं वे सब ही तो होते ॥ चिदू प शुद्ध ही शिव सुखकारी पाऊं । आनंद अतीन्द्रिय धारा ह्रदय सजाऊं ॥५॥ ॐ ह्रीं नवम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागममाय अर्घ्य नि. । तज्ज्ये व्यवहारेण संत्युपाया अनेकशः । निश्चयेनेति मे शुद्धचिद्रूपोऽहं स चिंतनम् ॥६॥ अर्थ- व्यवहारनय से इस उपयुक्त मोह के नाश करने के लिये बहुत से उपाय हैं। निश्चयनय से मैं शुद्धचिद्रूप हूं ऐसा विचार करने मात्र से ही इसका सर्वथा नाश हो जाता है। ६. ॐ ह्रीं मोहनाशोपायविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । अचिन्त्योऽहम् । इनको क्षय करने का उपाय अब जानो । चिद्रूप शुद्ध निज सविनय उर में आनो ॥ व्यवहार दृष्टि से हैं उपाय बहुतेरे । निश्चय बिन ये सब अरे मोह के चेरे ॥ चिदू प शुद्ध ही शिव सुख कारी पाऊँ । आनंद अतीन्द्रिय धारा ह्रदय सजाऊं ॥६॥ ॐ ह्रीं नवम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागममाय अर्घ्य नि. । (७) धर्मोद्वारविनाशनादि कुरुते कालो यथा रोचते, स्वस्यान्यस्य सुखासुखं वरख कर्मैव पूर्वजितम् । अन्ये येऽपि यथैव संति हि तथैवार्थाश्च तिष्ठति ते, चच्चिंतामिति मा विधेहि कुरु ते शुद्धात्मनश्चितनम् ||७||
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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