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________________ १८९ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान धन होने पर दान न देवे धार्मिकता का ढोंग करे । परभव में सुखरूपी पर्वत का विनाश वह स्वयं करे || अर्थ- ये जो संसार मे चेतन अचेतन रूप पदार्थ दृष्टिगोचर होते हैं। वे मेरे हैं या दूसरे के हैं इस प्रकार राग और द्वेष रूप विचार करना मिथ्या है। क्योंकि ये सब मोह स्वरूप है। और मेरा स्वरूप शुद्धचिद्रूप है। इसलिये ये मेरे कभी नहीं हो सकते । ५. ॐ ह्रीं चेतनाचेतनपदार्थविषयकरागद्वेषरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । निर्द्वेषस्वरूपोऽहम् । जो भी पदार्थ चेतन व अचेतन दिखते । ये मेरे हैं यह तेरे हैं यह कहते ॥ इस भांति राग द्वेषादि भाव करता है । कर मोह जन्य परिणाम दुक्ख भरता है ॥ चिद्रूप शुद्ध ही शिव सुखकारी पाऊं । आनंद अतीन्द्रिय धारा ह्रदय सजाऊं ॥४॥ ॐ ह्रीं नवम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागममाय अर्घ्य नि. । देहोऽहं मे स वा कर्मोदयोऽहं वाप्यसौ मम । कलत्रादिरहं वा मे मोहोऽदश्चितनं किल ॥५॥ अर्थ- मैं शरीर स्वरूप हूं व शरीर मेरा है। मैं कर्म का उदय स्वरूप हूं व कर्म का उदय मेरा है। मैं स्त्री पुत्रादि स्वरूप हूं व स्त्री पुत्र आदि मेरे हैं। इस प्रकार का विचार करना भी सर्वथा मोह है । देह आदि में मोह के होने से ही ऐसे विकल्प होते हैं । ५. ॐ ह्रीं कलत्रादिविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः स्वरूपसिद्धोऽहम् | यह मेरा स्वामी यह शरीर मेरा है । कर्मो का उदय स्वरूप उदय मेरा है ॥ स्त्री पुत्रादि स्वरूप यही सब मेरे । ऐसे विचार से बढ़ते भव के फेरे ॥
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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