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________________ १८० श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी अष्टम अध्याय पूजन सप्त तत्त्व परीक्षा करके सदैव विचार करना । आत्म ब्रह्म महान में रहना उसे ही ह्रदय धरना ॥ ॐ ह्रीं अष्टम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (१९) मिलितानेकवस्तूनां स्वरूपं हि पृथक् पृथक् । स्पर्शादिभिर्विदग्धेन निःशकं ज्ञायते यथा ॥१९॥ . अर्थ- जिस प्रकार विद्वान मनुष्य आपस में मिले हुए भी अनेक पदार्थो का स्वरूप स्पर्श आदि के द्वारा स्पष्ट रूप से । जुदा पहचान लेते हैं। १९. ॐ ह्रीं स्पर्शादिरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । निजैकचित्स्वरूपोऽहम् । मनुज विद्वान छूते ही मिलावट जान लेते ज्यों । उसी विधि देह चेतन को नहीं हम जानते हैं क्यों ॥ शुद्ध चिद्रूप का विज्ञान अद्भुत अरु अलौकिक है । शुद्ध चिद्रूप के अतिरिक्त जग में सर्व लौकिक है |॥१९॥ ॐ ह्रीं अष्टम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (२०) तथैव मिलितानां हि शुद्धचिद्देहकर्मणाम् | अनुभूत्या कथं सिद्धिः स्वरूपं न पृथक् पृथक् ॥२०॥ अर्थ- उसी प्रकार आपस में अनादिकाल से मिले हुए शुद्धचिद्रूप शरीर और कर्मो को. भी अनुभव ज्ञान के बल से वे बिना कसी रोक टोक के स्पष्ट रूप से जुदा जुदा जान लेते हैं। २०. ॐ ह्रीं देहकर्मादिविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । शंकरोऽहम् । बनें हम भेद विज्ञानी स्वानुभव शक्ति प्रगटाएं । शुद्ध चिद्रूप को पाएं शेष जड़ सर्व विघटाएं ॥ शुद्ध चिद्रूप का विज्ञान अद्भुत अरु अलौकिक है । शुद्ध चिद्रूप के अतिरिक्त जग में सर्व लौकिक है ॥२०॥
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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