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________________ १८१ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान भेदज्ञान महान से ही दृष्टि सबकी सुलटती । भेदज्ञान अभाव में तो दृष्टि सबकी उलटती ॥ ॐ ह्रीं अष्टम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (२१) आत्मानं देहकर्माणि भेदज्ञाने समागते । मुक्त्वा यान्ति यथा सर्पा गरुडे चंदनद्रुमम् ||२१|| अर्थ- जिस चंदन वृक्ष पर लिपटे हुए सर्प अपने बैरी गरुड़ पक्षी के देखते ही तत्काल आंखों के ओझल हो जाते है। पता लगाने पर भी उनका पता नहीं लगता। उसी प्रकार भेद विज्ञान के उत्पन्न होते ही समस्त कर्म आत्मा को छोड़ कर न मालूम कैहां लापता हो जाते हैं। विरोधी भेद विज्ञान के उत्पन्न होते ही कर्मों की सूरत भी नहीं दीख पड़ती। २१. ॐ ह्रीं मिथ्यात्वरूपसर्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । ज्ञानचंदनद्रुमोऽहम् | मलय चंदन सुतरु लिपटे भुजंगों में भयानक बल । गरुण को देखते ही वृक्ष तज हो जाते हैं ओझल | शुद्ध चिद्रूप का विज्ञान अद्भुत अरु अलौकिक है । शुद्ध चिद्रूप के अतिरिक्त जग में सर्व लौकिक है ॥२१॥ ॐ ह्रीं अष्टम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (२२) भेदज्ञानबलात् शुद्धचिद्रूपं प्राप्य केवली । भवद्देवाधिदेवोपितीर्थकर्त्ता जिनेश्वरः ॥२२॥ अर्थ- इसी भेद विज्ञान के बल से यह आत्मा शुद्धचिद्रूप को प्राप्त कर केवल ज्ञानी तीर्थकर और जिनेश्वर कहलाने लगता है २२. ॐ ह्रीं तीर्थकराादिपदरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । निजशाश्वतपदस्वरूपोऽहम् । भेद विज्ञान के बल से आत्म ज्ञानी सभी होते । इसी के बल से तीर्थंकर जिनेश्वर सिद्धवर होते ॥
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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