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________________ १७९ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान धर्म अनुकंपामयी है न मोही को पता I गगन वत निर्मल अतुल बन विमल निज परिचय जता ॥ (१७) भेदज्ञानं प्रदीपोऽस्ति शुद्धचिद्रूपदर्शने । अनादिजमहामोहतामसच्छेदनेऽपि च ॥१७॥ र्थ - यह भेद विज्ञान शुद्धचिद्रूप के दिखाने में जाज्वल्यमान दीपक है। और अनादिकाल से विद्यमान मोहरूपी प्रबल अंधकार का नाश करने वाला है । १७. ॐ ह्रीं अनादिजमहामोहनमरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः | ज्ञानोद्योतस्वरूपोऽहम् । शुद्ध चिद्रूप दर्शन में भेद विज्ञान ही दीपक । अनादि मोहरूपी तम विलय में सबल ये दीपक ॥ शुद्ध चिद्रूप का विज्ञान अद्भुत अरु अलौकिक है । शुद्ध चिद्रूप के अतिरिक्त जग में सर्व लौकिक है ॥१७॥ ॐ ह्रीं अष्टम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. । (१८) भेदविज्ञाननेत्रेण योगी सात्रादवेक्षते । सिद्धस्थाने शरीरे वा चिद्रूपं कर्मणेज्झितम् ||१८|| अर्थ- योगिग भेद विज्ञान रूपी नेत्र की सहायता से सिद्ध स्थान वा शरीर में विद्यमान समस्त कर्मों से रहित शुद्धचिद्रूप को स्पष्ट रूप से देख लेते हैं । १८. ॐ ह्रीं भेदविज्ञाननेत्रविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । शाश्वतज्ञाननेत्रस्वरूपोऽहम् । भेद विज्ञानरूपी नेत्र से मुनि देख लेते हैं । कर्म से रहित आत्मा जान सिद्ध पद लेख लेते हैं ॥ भेद विज्ञान ही चिद्रूप के दर्शन कराता है । भेद विज्ञान ही तत्क्षण सिद्ध पद पास लाता है ॥ शुद्ध चिद्रूप का विज्ञान अद्भुत अरु अलौकिक है । शुद्ध चिद्रूप के अतिरिक्त जग में सर्व लौकिक है ॥१८॥
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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