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________________ १७८ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी अष्टम अध्याय पूजन अनुभव स्वभावित भावना भा विभावी सब भाव तज । पुद्गलादिक से ममत्व निवार नित्य स्वभाव भज ॥ अनेक प्रकार की कलाएं भी हासिल कीं। बहुत सी शक्तियां और विभूतियां भी प्राप्त कीं। परन्तु भेद विज्ञान का लाभ आज तक न हुआ । १५. ॐ ह्रीं शिल्पादिकलारहितचिद्रूपाय नमः । चित्कलास्वरूपोऽहम् । जगत में रह पदार्थो की परीक्षा करना भी सीखो । शिल्प आदिक कला कौशल बड़ी ही सुरुचि से सीखो || बहुत सी शक्तियां पायीं लाभ कुछ भी नहीं पाया । बहुत सी विभूतियां पायीं भेद विज्ञान ना पाया ॥ . शुद्ध चिद्रूप का विज्ञान अद्भुत अरु अलौकिक है । शुद्ध चिद्रूप के अतिरिक्त जग में सर्व लौकिक है ॥१५॥ ॐ ह्रीं अष्टम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. । (१६) चिद्रूपच्छादको मोहरेणुराशि र्न बुध्यते । क्व यातीति शरीरात्मभेदज्ञानप्रभंजनात् ||१६|| अर्थ- शरीर और आत्मा के भेद विज्ञान रूपी महा पवन के सामने चिद्रूप के स्वरूप को ढकने वाली मोह की रेणुएं न मालूम कहां किनारा कर जाती है ? १६. ॐ ह्रीं चिद्रूपच्छादकमोहरेणुराशिरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः | ज्ञानराशिस्वरूपोऽहम् । देह अरु आत्मा का भेद जब उर में प्रगट होता । भेद विज्ञान की पावन पवन से मोह क्षय होता ॥ शुद्ध चिद्रप पाने में जो बाधा हेतु हैं सारे । मोह रज रेणु को लेकर कहीं उड़ जाते बेचारे ॥ शुद्ध चिद्रूप का विज्ञान अद्भुत अरु अलौकिक है । शुद्ध चिद्रूप के अतिरिक्त जग में सर्व लौकिक है ||१६|| ॐ ह्रीं अष्टम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. ।
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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