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________________ १६२ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी सप्तम अध्याय पूजन निज आत्मा को छलने वाली आत्म वंचना क्षय कर ले। माया कपट जालसारे ही ऋजता से तू जय कर ले | ॐ ह्रीं सप्तम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अयं नि. । (२१) निश्चयं क्वचिदालम्ब्य व्यवहारं क्वचिन्नयम् । विधिना वर्तते प्राणी जिनवाणी विभूषितः ॥२१॥ अर्थ- जो जीव भगवान जिनेन्द्र की वाणी से पूजित है। उनके वचनों पर पूर्ण रूप से श्रद्धा रखने वाले हैं। वे कहीं व्यवहारनय से काम चलाते हैं। और कहीं निश्चयनय का सहारा लेते हैं। अर्थात् जहां जैसा अवसर देखते हैं वहां वैसा ही उसी नय का आश्रय कर कार्य करते हैं। २१. ॐ ह्रीं जिनवाणीविभूषितजीवनविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । ज्ञानालंकारस्वरूपोऽहम् । जो जिनवचनों पर श्रद्धा रखते वे ही हरषाते हैं । दोनों नय का यथा योग्य अवलंबन ले सुख पाते है || परम शुद्ध चिद्रूप शक्ति का मुझको अब विश्वास हुआ । परम ज्ञान का सुमुद्र पाया निज में आज निवास हआ॥२१॥ ॐ ह्रीं सप्तम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (२२) व्यवहाराद्वहिः कार्ये कुर्याद्विधिनियोजितम् । निश्चयं चान्तरं धृत्वा तत्त्ववेदी सुनिश्चलम् ॥२२॥ अर्थ- जो महानुभाव तत्त्वज्ञानी है। भले प्रकार तत्त्वों के जानकार है। वे अतरंग में भले प्रकार निश्चय नय को धारण कर व्यवहारनय से अवसर देख कर वबह्य में कार्य का संपादन करते हैं। अर्थात् दोनों नयों को काम में लाते हैं। एक नय स कोई काम नहीं करते । २२. ॐ ह्रीं विधिनियोजितकार्यविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । सच्चित्स्वरूपोऽहम् ।
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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