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________________ १६१ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान केवल संस्तुति श्री जिनवर की निश्चय से निज अनुभव कर। याचक होकर भीख मांगने का धंदा तो अवबंद करो || व्यवहार का ही अवलंबन कर नष्ट हो जाते हैं। १९. ॐ ह्रीं निश्चयव्यवहाराभासरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । निर्धान्तस्वरूपोऽहम् । जो व्यवहार छोड़ केवल निश्चय का लेते अवलंबन वे हो जाते नष्ट भ्रष्ट अरु वे न जानते शास्त्र कथन || जो निश्चय को छोड़ मात्र व्यवहार शरण ही लेते हैं । ये भी नष्ट भ्रष्ट हो जाते बिना मोल दुख लेते हैं | परम शुद्ध चिद्रूप शक्ति का मुझको अब विश्वास हुआ । परम ज्ञान का सुमुद्र पाया निज में आज निवास हुआ॥१९॥ ॐ ह्रीं सप्तम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (२०) द्वाभ्यां दृग्भ्यां न स्यात् सम्यग्द्रव्यावलोकनम् । यथा तथा नयभ्यां चेत्युक्तं स्याद्वादवादिभिः ॥२०॥ अर्थ- जिस प्रकार एक नेत्र से भले प्रकार पदार्थो का अवलोकन नहीं होता। दोनों ही नेत्रों से पदार्थ भले प्रकार दीख सकते हैं। उसी प्रकार एक नय से कभी कार्य नहीं चल सकता। व्यवहार और निश्चय दोनों नयों से ही निर्दोष रूप से कार्य हो सकता है, ऐसा स्याद्वादमत के धुंरधर विद्वानों का मत है । २०. ॐ ह्रीं सम्यक्द्रव्यावलोकनविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । ज्ञानप्रकाशस्वरूपोऽहम् । एकनेत्र से ज्यों पदार्थ भी भलीभांति दिखते न कभी । दोनों नेत्रों से पदार्थ भी भली भांति से दिखें सभी ॥ उसी प्रकार एक नय से तो कार्य सिद्धि होती न कभी । स्याद्वाद् का कथन यही है दोनो नय हों सिद्धि तभी ॥ परम शुद्ध चिद्रूप शक्ति का मुझको अब विश्वास हुआ । परम ज्ञान का सुमुद्र पाया निज में आज निवास हुआ||२०॥
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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