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________________ १६३ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान जो संसार दुखों से डरते वे ही शिव पथ पर आते । भव समुद्र को शीघ्र पार कर वे ही शिवपद को पाते ॥ जो तत्त्वों के जानकार हैं निश्चय कालें अवलंबन | अवसर आने पर व्यवहारनयादिक का लें अवलंवन ॥ बाह्य कार्य करना हो तो व्यवहार बड़ा उपयोगी है । अंतरंग का करना हो तो निश्चयनय उपयोगी है | परम शुद्ध चिद्रूप शक्ति का मुझको अब विश्वास हुआ । परम ज्ञान का सुमुद्र पाया निज में आज निवास हुआ | ॐ ह्रीं सप्तम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (२३) शुद्धचिद्रूपसंप्राप्तिर्नयाधीनेति पश्यताम् । नयादिरहित शुद्धचिद्रूपं तदनन्तरम् ॥२३॥ अर्थ- शुद्धचिद्रूप की प्राप्ति नयों के आधीन है। पश्चात् शुद्धचिद्रूप के प्राप्त हुए बाद नयों के अवलंबन की कोई आवश्यकता नहीं । २३. ॐ ह्रीं नयाधीनतारहितचिद्रूपाय नमः । निजाधीनबोधस्वरूपोऽहम् । प्राप्ति शुद्ध चिद्रूप नयों के ही आधीन कही जाती । जब हो जाती प्राप्ति नयों की आवश्यकता ना रह पाती ॥ नयातीत चिद्रूप शुद्ध है है पक्षातिक्रान्त निर्मल । सतत प्रकाशमान रहता है बिना अपेक्षा के उज्ज्वल ॥ परम शुद्ध चिद्रूप शक्ति का मुझको अब विश्वास हुआ । परम ज्ञान का सुमुद्र पाया निज में आज निवास हुआ ॥२३॥ ॐ ह्रं भट्टारकज्ञानभूषणविरचिततत्त्वज्ञान तरंगिण्यां शुद्धचिद्रूपस्मरणाय नयावलम्बन प्रतिपादकसप्तमाध्याय् समतास्वरूपाये पूर्णार्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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