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________________ जिनागम के अनमोल रत्न ] असति सति विभावे तस्य चिन्तास्ति नो नः । सततमनुभवामः शुद्ध मात्मानमेकम् ॥ प्रमुक्तं । हृदयकमलसंस्थं सर्वकर्म न खलु न खलु मुक्तिर्नान्यथास्त्यस्ति तस्मात् । 34 ।। [39 (हमारे आत्मस्वभाव में) विभाव असत् होने से उसकी हमें चिन्ता नहीं है; हम तो हृदयकमल में स्थिति सर्व कर्म से विमुक्त, शुद्ध आत्मा का एक का सतत् अनुभवन करते हैं, क्योंकि अन्य किसी प्रकार से मुक्ति नहीं है, नहीं है। भबिनि भबगुणाः स्युः सिद्धजीवेपि नित्यं । निजपरमगुणाः स्युः सिद्धसिद्धाः समस्ताः ।। व्यवहरणनयोऽयं निश्चयान्नैव सिद्धि । न च भवति भवो वा निर्णयोऽयं बुधानाम् ॥ 135 ।। संसारी में सांसारिक गुण होते हैं और सिद्ध जीव में सदा समस्त सिद्धि सिद्ध निज परमगुण होते हैं - इस प्रकार व्यवहारनय है । निश्चय से तो सिद्ध भी नहीं है और संसार भी नहीं है । यह बुध पुरूषों का निर्णय है । जीवादिबहित्तच्चं हेयमुवादेयमप्पणो अप्पा । कम्मोपाधि समुभव गुणपज्जाएहिं बदिरित्तो ।। है है सब बहितत्त्व ये जीवादि, आत्मा ग्राह्य है । अरु कर्म से उत्पन्न गुणपर्याय से वह बाह्य है ।।38 ।। टीका - यह, हेय उपादेय तत्त्व के स्वरूप का कथन है । जीवादि साततत्वों का समूह परद्रव्य होने के कारण वास्तव में उपादेय नहीं है। सहज वैराग्यरूपी महल के शिखर का जो शिखामणि हैं, परद्रव्य से पराङ्मुख है, पाँच इन्द्रियों के विस्तार रहित देहमात्र जिसे परिग्रह है, जो परम जिनयोगीश्वर है, स्वद्रव्य में जिसकी तीक्ष्ण बुद्धि है - ऐसे आत्मा को "आत्मा" वास्तव में उपादेय है । औदयिक आदि चार भावान्तरों को अगोचर होने से जो (कारण
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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