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________________ 38] [जिनागम के अनमोल रत्न (6) नियमसार भवभयभेदिनि भगवति भवतः किं भक्तिरच न समस्ति। तर्हि भबाम्बुधिमध्यग्राहमुखान्तर्गतो भवसि।। भव के भय का भेदन करने वाले इन भगवान के प्रति क्या तुझे भक्ति नहीं है? तो तू भवसमुद्र के मध्य में रहने वाले मगर के मुख में है।12।। क्वचिल्लसति सद्गुणैः क्वचिदशुद्धरूपैर्गुणैः। क्वचित्सहजपर्ययैः क्वचिद्शुद्धपायकैः।। सनाथमपि जीवतत्वमनाथं समस्तै रिदं। नमामि परिभावयामि सकलार्थसिद्धयैसदा।।26।। जीवतत्व क्वचित् सद्गुणों सहित बिलसता है-दिखाई देता है, क्वचित् अशुद्धगुणों सहित विलसता है, क्वचित् सहज पर्यायों सहित बिलसता है और क्वचित् अशुद्ध पर्यायों सहित बिलसता है। इन सबसे सहित होने पर भी जो इन सबसे रहित है, ऐसे इस जीवतत्व को मैं सकल अर्थ की सिद्धि के लिये सदा नमता हूँ, भाता हूँ। कारणशुद्धपर्याय और कार्यशुद्धपर्याय यहाँ सहज शुद्ध निश्चय, अनादि-अनन्त, अमूर्त, अतीन्द्रिय स्वभाव वाले और शुद्ध ऐसे सहजज्ञान-सहज दर्शन-सहजचारित्र-सहज परम वीतराग सुखात्मक शुद्ध अन्तः तत्वस्वरूप जो स्वभाव-अनन्तचतुष्टय का स्वरूप उसके साथ की जो पूजित पंचमभावपरिणति (-उसके साथ तन्मयरूप से रहने वाली जो पूज्य ऐसी पारिणामिक भाव की परिणति) वही कारणशुद्ध पर्याय है, ऐसा अर्थ है। - सादि-अनन्त, अमूर्त, अतीन्द्रियस्वभाव वाले शुद्ध-सद्भूत व्यवहार से, केवलज्ञान-केवलदर्शन-केवलशक्ति युक्त फलरूप अनन्त चतुष्टय के साथ की (अनन्त चतुष्टय के साथ तन्मयरूप से रहने वाली) जो परमोत्कृष्ट क्षायिकभाव की शुद्धपरिणति वही कार्यशुद्धपर्याय है। गाथा-15 ।।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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