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________________ 40] [जिनागम के अनमोल रत्न परमात्मा) द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मरूप उपाधि से जनित विभाव गुणपर्यायों से रहित है, तथा अनादि-अनन्त अमूर्त अतीन्द्रियस्वभाव वाला शुद्ध-सहज-परम-पारिणामिक भाव जिसका स्वभाव है-ऐसा कारण परमात्मा वह वास्तव में "आत्मा" है। अति-आसन्न भव्यजीवों को ऐसे निज परमात्मा के अतिरिक्त (अन्य) कुछ उपादेय नहीं है। जयति समयसारः सर्वतत्वैक सारः। सकलबिलयदूरः प्रास्तदुर्बारमारः।। दुरिततरु कुठारः शुद्ध बोधावतारः। सुखजलनिधिपूरः क्लेशबाराशिपारः।।54।। सर्वतत्वों में जो एक सार है, जो समस्त नष्ट होने योग्य भावों से दूर है, जिसने दुर्बार काम को नष्ट किया है, जो पापरूप वृक्ष को छेदने वाला कुठार है, जो शुद्धज्ञान का अवतार है, जो सुखसागर की बाढ़ है और जो क्लेशोदधि का किनारा है, वह समयसार जयवन्त वर्तता है। . . . · · जो प्रीति-अप्रीति रहित शाश्वत पद है, जो सर्वथा अन्तर्मुख और प्रगट प्रकाशमान ऐसे सुख का बना हुआ, नभमण्डल समान अकृत है, चैतन्यामृत के पूर से भरा हुआ जिसका स्वरूप है, जो विचारवन्तं चतुर पुरुषों को गोचर है-ऐसे आत्मा में तू रूचि क्यों नहीं करता और दुष्कृतरूप संसार के सुख की वांछा क्यों करता है? । कलश 55।। . . .. __ सुकृ तमपि समस्तं भोगिनां भोगमूलं। त्यजतु .. परमतत्त्वाभ्यासनिष्णातचित्तः। उभयसमयसारं सारतत्वस्वरूपं । भजतु भवविमुक्त्यै कोऽत्र दोषो मुनीषः।। समस्त सुकृत (शुभ कर्म) भोगियों के भोग का मूल है; परमतत्व के अभ्यास में निष्णात चित्त वाले मुनीश्वर भव से विमुक्त होने हेतु उस समस्त शुभ कर्म को छोड़ो और सारतत्वस्वरूप ऐसे उभय समयसार को भजो इसमें क्या दोष है ? | कलश 59 ।।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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