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________________ जिनागम के अनमोल रत्न] [37 स्वाध्याय और ध्यान की सिद्धि के लिये आलस्य न दबा बैठे, इस कारण बहुत कम आहार और एकान्त स्थान का आश्रय करना चाहिये ।। भावार्थ : 16-13।। हे आत्मन् ! यह चिदात्मा सूर्य, अमृत, कल्पवृक्ष, चिन्तामणि, कामधेनु, स्वर्ग, विद्वान और विष्णु के अखण्ड गर्व को देखते-देखते चूर करने वाला है और विजयशील है। 17-12।। यदि शुद्धचिद्रूप का चिन्तवन किया जायेगा तो प्रतिक्षण कर्मों से मुक्ति होती चली जायेगी और यदि परपदार्थों का चिन्तवन करेगा तो प्रति समय कर्मबंध होता रहेगा, इसमें कोई सन्देह नहीं है। 18-9।। जिनदर्शन जिनधर्मविनिर्मुक्तो, मा भवेच्चक्रवर्त्यपि। स्याच्चेटोऽपि, दरिद्रोऽपि, जिनधर्मानुवासितः।। जन्म-जन्मकृतं पापं, जन्म-कोट्यामुपार्जितम्। जन्म-मृत्यु-जरा रोगं, हन्यते जिन-दर्शनात्।। मेरी प्रतिज्ञायें - मेरे कर्तव्य 1. मुझे इस पर्याय में अपना कल्याण करना ही है। 2. मेरा कल्याण जिनवाणी के अभ्यास से ही हो सकता है, अतः मैं निरन्तर जिनवाणी का अभ्यास करूँगा। 3. मैं जिनवाणी का अभ्यास आत्मकल्याण की भावना से करूँगा, अन्य किसी लौकिक प्रयोजन से नहीं। * सौ काम छोड़कर देवदर्शन करना चाहिए। हजार काम छोड़कर स्वाध्याय करना चाहिए। लाख काम छोड़कर आत्मचिन्तन करना चाहिए। करोड़ काम छोड़कर सम्यग्दर्शन पाना चाहिए .
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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