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________________ जिनागम के अनमोल रत्न] [17 जसु हरिणच्छी हियवऽउ तसु णवि बंभु बियारि। एक्कहिं केम समंति बढ बे खंडा पडियारि।121॥ अर्थ :- जिस पुरूष के चित्त में मृग के समान नेत्रों वाली स्त्री बस रही है उसके अपना शुद्धात्मा नहीं है, अर्थात् उसके शुद्धात्मा का विचार नहीं होता, ऐसा हे प्रभाकर भट्ट ! तू अपने मन में विचार कर। बड़े खेद की बात है कि एक म्यान में दो तलवारें कैसे आ सकती हैं? कभी नहीं समा सकती। देउ ण देउले णवि सिलए णवि लिप्पइ णवि चित्ति। अखउणिरंजणुणाणमउ सिउसंठिउसम चित्ति123॥ अर्थ :- आत्मदेव देवालय में नहीं है, पाषाण की प्रतिमा में भी नहीं है, लेप में भी नहीं है, चित्राम की मूर्ति में भी नहीं है, वह किसी जगह नहीं रहता। वह देव अविनाशी है, कर्माञ्जन से रहित है, केवलज्ञान कर पूर्ण है, ऐसा निज परमात्मा समभाव में तिष्ठ रहा है, अन्यत्र नहीं। मणु मिलियउ परमेसरहँ परमेसरु बि मणस्स। बीहि वि समरसि हुवाहँ पुज्ज चडावउँकस्स।123॥ अर्थ :- मन भगवान आत्माराम से मिल गया और परमेश्वर भी मन से मिल गया तो दोनों ही को समरस होने पर अब मैं किसकी पूजा करूँ। अर्थात् अब किसी को पूजना, सामग्री चढ़ाना नहीं रहा। हस्ते चिन्तामणिर्यस्य गृहे यस्य सुरदुमः। कामधेनुर्धनं यस्य तस्य का प्रार्थना परा।। अर्थ :- जिसके हाथ में चिन्तामणि है, धन में कामधेनु है और जिसके घर में कल्पवृक्ष है, उसे अन्य से प्रार्थना की क्या आवश्यकता है? कल्पवृक्ष, कामधेनु, चिन्तामणि तो कहने मात्र है, वास्तव में तो सम्यक्त्व ही कल्पवृक्ष, कामधेनु, चिन्तामणि है-ऐसा जानना। (अ. 2, गा. 15 भा.) जा णिसि सयलहँ देहियहँ जोग्गिउ तहिं जग्गेइ। जहिं पुणुजग्गइ सयलुजगुसा णिसि मणिविसुबेइ।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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