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________________ 16] [जिनागम के अनमोल रत्न . अर्थ :- दुःख के कारण जो पाँच इन्द्रियों के विषय हैं, उन्हें सुख के कारण जानकर रमण करता है, वह मिथ्यादृष्टि जीव इस संसार में क्या पाप नहीं करता? सभी पाप करता है। अण्णु जि तित्थुम जाहि जिय अण्णु जि गुरुउम सेवि। अण्णु जि देउ म चिंति तुहुँ अप्पा बिमलु मुएवि।।95।। अर्थ :- हे जीव! तू दूसरे तीर्थ को मत जावे, दूसरे गुरु को मत सेवे, अन्य देव को मत ध्यावे, रागादि मल रहित आत्मा को छोड़कर अर्थात् अपना आत्मा ही तीर्थ है, वहाँ रमण कर आत्मा ही गुरू है उसकी सेवा कर और आत्मा ही देव है, उसकी आराधना कर। णाणिय णाणिउ णाणिएण णाणिउँ जा ण मुणेहि। ता अण्णाणिं णाणमउँ किं पर बंभु लहेहि।108।। अर्थ :- जब तक यह जीव अपने को आपकर अपनी प्राप्ति के लिये आपसे अपने मैं तिष्ठता नहीं जान ले, तब तक निर्दोष शुद्ध परमात्मा सिद्ध परमेष्ठी को क्या पा सकता है? कभी नहीं पा सकता। जो आत्मा को जानता है वही परमात्मा को जानता है। जइ णिबिसद्ध वि कु वि करइ परमप्पइ अणुराइ। अग्गि-कणी जिम कट्ठ-गिरी डहइ असेसुविपाउ।114॥ .. अर्थ :- जो आधे निमेष मात्र भी कोई परमात्मा में प्रीति करे तो जैसे अग्नि की कणी काठ के पहाड़ को भस्म कर देती है, उसी तरह सब ही पापों को भस्म कर डाले। . जं मुणि लहइ अणंत सहु णिय अप्पा झायंतु। : तंसुहुइंदु बिणवि लहइ देविहिँ कोडि रमंतु।।17।। अर्थ :- अपनी आत्मा को ध्याता परम तपोधन जो अनंत सुख को पाता है, उस सुख को इन्द्र भी करोड़ देवियों के साथ रमता हुआ नहीं पाता।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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