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________________ 18] [जिनागम के अनमोल रत्न अर्थ :- जो सब संसारी जीवों की रात है, उसमें योगी जागते हैं, और जिसमें सब संसारी जीव जाग रहे हैं, उस दशा को योगी रात मानकर योग निद्रा में सोते हैं। 46+1।। ___ भणइ भणावह णबि थुणइ णिंदह णाणि ण कोई। - सिद्धिहिं कारणु भाउ समुजाणंतउ पर सोई।।48।। अर्थ :- ज्ञानी (निर्विकल्प ध्यानी) पुरूष न किसी का शिष्य होकर पढ़ता है, न गुरू होकर किसी को पढ़ाता है, न किसी की स्तुति करता है, न किसी की निन्दा करता है, मोक्ष का कारण एक समभाव को जानता हुआ केवल आत्मस्वरूप में अचल हो रहा है। वर जिय पावइँ सुंदरइँ णाणिय ताइँ भणंति। जीवहँ दुक्खइँ जणिविलहु सिवमइँ जाइँ कुणंति।।56।। अर्थ :- हे जीव! जो पाप का उदय जीवों को दुःख देकर शीघ्र ही मोक्ष के जाने योग्य उपायों में बुद्धि कर देवें, तो वह पाप का उदय भी अच्छा हैऐसा ज्ञानी कहते हैं। मं पुणु पुण्णइँ भल्लाहँ णाणिय ताइँ भणंति। जीवहँ रज्जइँ देवि लहु दुक्खइँ जाइँ जणंति।।57॥ अर्थ :- परन्तु वे पुण्य भी अच्छे नहीं हैं, जो जीव को राज्यादि विभूति देकर शीघ्र ही नरकादि के दुखों को उपजाते हैं। ऐसा ज्ञानी पुरूष कहते हैं। पुण्येण होइ बिहबो बिहवेण मओ मएण मइ मोहो। मइ-मोहेण य पावं ता पुण्णं अम्ह मा होउ।।6।। अर्थ :- पुण्य से धनादि वैभव होता है, वैभव से अभिमान, अभिमान से बुद्धिभ्रम होता है, बुद्धि के भ्रम होने से पाप होता है, इसलिये ऐसा पुण्य हमारे न होवे।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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