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________________ 144] [जिनागम के अनमोल रत्न (25) पुरूषार्थसिद्धियुपाय कोई नर निश्चय से आत्मा को शुद्ध मान, हुआ है स्वछन्द न पिछाने निज शुद्धता। कोई व्यवहार दान तप शीलभाव को ही, आत्मा का हित मान छोड़े नहीं मुद्धता। कोई व्यवहारनय निश्चय के मारग को, भिन्न भिन्न जानकर करत निज उद्धता। जाने जब निश्चय के भेद व्यवहार सब, ___ कारण को उपचार माने तब बुद्धता।। तज्जयति परं ज्योतिः समं समस्तैरनन्तपर्यायैः। दर्पण तल इव सकला प्रतिफलति पदार्थ मालिकायत्र।। जिसमें दर्पण के तल की तरह समस्त पदार्थों का समूह अतीत, अनागत और वर्तमान काल की समस्त अनन्त पर्यायों सहित प्रतिबिम्वित होता है, वह सर्वोत्कृष्ट शुद्ध चेतनारूप प्रकाश जयवन्त वर्ता। निश्चयमिह भूतार्थं व्यवहार वर्णयन्त्यभूतार्थम्। भूतार्थबोध विमुखः प्रायः सर्वोऽपि संसारः।।5।। इस ग्रन्थ में निश्चयनय को भूतार्थ और व्यवहारनय को अभूतार्थ वर्णन करते हैं। प्रायः भूतार्थ-निश्चय के ज्ञान के विरूद्ध जो अभिप्राय है, वह समस्त ही संसार स्वरूप है। अबुद्धस्य बोधनार्थं मुनीश्वराः देशयन्त्यभूतार्थम् । व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य देशना अस्ति।।६।। ग्रन्थकर्ता आचार्य अज्ञानी जीवों को ज्ञान उत्पन्न करने के लिये व्यवहारनय का उपदेश करते हैं और जो जीव केवल व्यवहार को ही जानता है उसको उस मिथ्यादृष्टि जीव के लिये उपदेश नहीं है।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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