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________________ जिनागम के अनमोल रत्न ! [143 प्रत्यक्ष हैं । क्योंकि स्वात्मानुभव दर्शनमोहनीय कर्म के उपशम, क्षय, क्षयोपशम से होता है। दर्शन मोहनीय कर्म ही स्वानुभूति के प्रत्यक्ष होने में बाधक है और उसका अभाव ही साधक है । 1462 ।। आत्मा का अनुभव करने वाला ज्ञान सम्यग्दृष्टि को है। सम्यग्दृष्टि का स्वसंवेदन प्रत्यक्ष शुद्ध है और सिद्धों की उपमा वाला है । 1489 ।। दर्शनमोहनीय कर्म का अनुदय होने पर आत्मा के शुद्धानुभव होता है, उसमें चारित्रमोहनीय का उदय विघ्न नहीं कर सकता है । 1688 ।। सबसे प्रथम अपना हित करना चाहिये । यदि अपना हित करते हुए जो पर हित करने में समर्थ है उसे परहित भी करना चाहिये । आत्महित और परहित इन दोनों में आत्महित ही उत्तम है उसे ही प्रथम करना चाहिये | 1805 ।। जो ज्ञान किसी एक पदार्थ में निरन्तर रहता है उसी को ध्यान कहते हैं । इस ध्यानरूप ज्ञान में भी वास्तव में न तो क्रम ही है और न अक्रम ही है। ध्यान में एक वृत्ति होने से वह ज्ञान एक सरीखा ही विदित होता है । वह बारबार उसी ध्येय की तरफ लगता है इसलिये वह क्रमवर्ती भी है । 1843-44।। सम्यग्दर्शन के साथ तथा उसके आगे और भी सद्गुण प्रगट होते हैं, वे सब सम्यग्दर्शन सहित हैं इसीलिये गुण हैं । उनमें से कुछ हैं - स्वसंवेदन प्रत्यक्ष स्वानुभवज्ञान, वैराग्य और भेदविज्ञान इत्यादि सभी गुण सम्यग्दर्शन के होने पर ही होते हैं इससे अधिक क्या कहा जाये । 1940-41।। यह ज्ञानरूपी धन ऐसा विलक्षण है कि चोर तो चुरा सकते नहीं, भाई बंधु बाँट सकते नहीं, मरण पीछे पुत्र आदि ले सकते नहीं, राजा छीन सकता नहीं और दूसरे लोग आँखों द्वारा देख नहीं सकते। तीन लोक में यह ज्ञान पूज्य है। यह ज्ञानघन जिनके पास हो उन लोगों को धन्य समझने में आता है। -आचार्य अमितगति : सुभाषित रत्न संदोह, श्लोक 183
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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