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________________ जिनागम के अनमोल रत्न ] माणबक एव सिंहो यथा भवत्यनवगीत सिंहस्य । व्यवहार एव हि तथा निश्चयतां यात्यनिश्चयज्ञस्य ॥ 7 ॥ जिस प्रकार सिंह को सर्वथा न जानने वाले पुरूष के लिये बिलाव ही सिंह रूप होता है वास्तव में उसी प्रकार निश्चयनय के स्वरूप से अपरिचित पुरूष के लिये व्यवहार ही निश्चयपने को प्राप्त होता है । व्यवहारनिश्चयौ यः प्रबुध्यतत्त्वेन भवति मध्यस्थः । प्राप्नोति देशनायाः स एव फलमविकलं शिष्यः ॥ 8 ॥ [145 जो जीव व्यवहारनय और निश्चयनय को वस्तुस्वरूप से यथार्थरूप से जानकर मध्यस्थ होता है, अर्थात् निश्चयनय और व्यवहारनय के पक्षपात रहित होता है वह ही शिष्य उपदेश का सम्पूर्ण फल प्राप्त करता है । एवमयं कर्मकृतैर्भावैरसमाहितोऽपि युक्त इव । प्रतिभाति बालिशानां प्रतिभासः स खलु भववीजम् ॥14॥ इस प्रकार यह आत्मा कर्मकृत रागादि अथवा शरीरादि भावों से संयुक्त न होने पर भी अज्ञानी जीवों को संयुक्त जैसा प्रतिभासित होता है और वह प्रतिभास ही निश्चय से संसार का बीजरूप है। तत्रादौ सम्यक्त्वं समुपाश्रयणीयमखिलयत्नेन । तस्मिन् सत्येव यतो भवति ज्ञानं चरित्रं च ।।21।। इन तीनों में प्रथम समस्त प्रकार सावधानतापूर्वक यत्न से सम्यग्दर्शन को भले प्रकार अंगीकार करना चाहिये क्योंकि उसके होने पर ही सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र होता है। हिंसा एवं अहिंसा का स्वरूप हिंसैतत् । आत्मपरिणामहिंसनहेतुत्वात्सर्वमेव अनृतवचनादि केवलमुदाहृतं शिष्यबोधाय ॥ 42 ॥ आत्मा के शुद्धोपयोगरूप परिणामों के घात होने के कारण यह सब
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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