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________________ 132] [जिनागम के अनमोल रत्न रे! आक्रमे न जरा, गदाग्नि दहे न तनकुटिज्यांलगी। बलइन्द्रियो का नहिं घटे, करी ले तुंनिज हित त्यांलगी।।132।। हे मुने! जब तक तेरे जरा न आवे तथा जब तक, रोग-रूपी अग्नि तेरी देहरूपी कुटी को भस्म न करे और जब तक इन्द्रियों का बल न घटे, तब तक अपना हित कर लो। जीवविमुक्को सबओ दंसणमुक्को य होइ चलसबओ। सबओ लोयअपुज्जो लोउत्तरयम्मि चलसबओ।। जीवमुक्त शव कहेवाय, 'चलसव' जान दर्शनमुक्तको। शवलोकमांहीअपूज्य, चलसव होयलोकोत्तरविषे।143।। लोक में जीव रहित शरीर को 'शव' कहते हैं, 'मृतक' या 'मुरदा' कहते हैं, वैसे ही सम्यग्दर्शन रहित पुरुष 'चलता हुआ मृतक' है। मृतक तो लोक में अपूज्य है और 'सम्यग्दर्शन रहित चलता हुआ शव' लोकोत्तर जो मुनि-सम्यग्दृष्टि उनमें अपूज्य है। तेच्चिय भणामि हं जे सयलकलासीलसंजमगुणेहिं। बहुदोसाणावासो सुमलिणचित्तोण साबयसयो सो।।155।। पूर्वोक्त भाव सहित पुरुष हैं और शील संयम गुणों से सकल कला अर्थात् सम्पूर्ण कलावान होते हैं, उन्हीं को हम मुनि कहते हैं। जो सम्यग्दृष्टि नहीं हैं, मलिनचित्त सहित मिथ्यादृष्टि हैं और बहुत दोषों का आवास हैं वह तो भेष धारण करते हैं तो भी श्रावक के समान भी नहीं हैं।।155 ।। मोक्षपाहुड़ परदब्बादो दुग्गई सद्दब्बादो दु सुग्गई होइ। इय णाऊण सदब्बे कुणह रई विरह इयरम्मि।।16।। परद्रव्य से दुर्गति होती है और स्वद्रव्य से सुगति होती है यह स्पष्ट जानो, इसलिये हे भव्यजीवो! तुम इस प्रकार जानकर स्वद्रव्य में रति करो और अन्य जो परद्रव्य उनसे विरति करो।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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