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________________ जिनागम के अनमोल रत्न] [131 मनुष्य आदि भी कारण पाकर नग्न होते हैं तो भी परिणामों से अशुद्ध हैं, इसलिये भावश्रमणपने को प्राप्त नहीं हुए।।67।। धम्मम्मि णिप्पवासो दीक्षावासो य उच्छुफुल्लसमो। णिण्फलणिग्गुणयारो णडसवणो णग्गरूदेण।। धर्म अर्थात् अपने स्वभाव में जिसका वास नहीं है वह जीव दोषों का आवास है अथवा जिसमें दोष रहते हैं वह इक्षु के फूल के समान है, जिसके न तो कुछ फल ही लगते हैं और न उसमें गंधादिक गुण ही पाये जाते हैं। इसलिये ऐसा मुनि तो नग्नरूप करके नटश्रमण अर्थात् नाचने वाले भांड के स्वांग के समान है। 71।। हे मुने! तू इन्द्रियों की सेना है उसका भंजन कर विषयों में मत रम, मन रूप बंदर को प्रयत्नपूर्वक बड़ा उद्यम करके भंजन कर, वशीभूत कर और बाह्यव्रत का भेष लोक को रंजन करने वाला मत धारण कर ।।90 ।। हे मुनि! तू संसार को असार जानकर उत्तमबोधि के निमित्त अविकार अर्थात् अतिचार रहित निर्मल सम्यग्दर्शन सहित होकर दीक्षाकाल आदिक की भावना कर। - (निरन्तर स्मरण में रखना :- सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की वृद्धि हेतु हे मुनि! दीक्षा के समय की अपूर्व उत्साहमय तीव्र विरक्तदशा को; किसी रोगोत्पत्ति के समय की उग्र ज्ञान-वैराग्य सम्पत्ति को किसी के दुख के अवसर पर प्रगट हुई उदासीनता की भावना को किसी उपदेश तथा तत्त्वविचार के धन्य अवसर पर जगी पवित्र अन्तः भावना को स्मरण में रखना, निरन्तर स्वसन्मुख ज्ञातापन का धीरज अर्थ स्मरण में रखना, भूलना मत) 1110।। उत्थरइ जा-ण जरओ रोयग्गी जा-ण-ऽहइ देहउडिं। . इन्द्रियबलं ण वियलइ ताव तुमं कुणहि अप्पहियं ।।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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