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________________ जिनागम के अनमोल रत्न ] [133 जो सुत्तो बबहारे सो जोई जग्गए सकज्जम्मि । जो जग्गदि बवहारे सो सुत्तो अप्पणी कज्जे ।। इय जाणिऊण जोई ववहारं चयइ सब्वहा सब्वं । झाय परमप्पाणं जह भणियं जिणबरिंदेहिं ।। योगी सोता व्यवहार में वह जागता निजकार्य में । जो जागता व्यवहार में वह सुप्त आतम कर्म में । 131 ॥ यह जान योगी सर्वथा छोड़े सकल व्यवहार को । परमात्म को ध्यावे यथा उपदिष्ट जिनदेवो बड़े || दंसणसुद्धो सुद्धो दंसणसुद्धो लहेइ णिब्बाणं । दंसणविहीणपुरिसो ण लहइ तं इच्छियं लाहं । 132 ।। जो पुरूष दर्शन से शुद्ध है वह ही शुद्ध है क्योंकि जिसका दर्शन शुद्ध है वही निर्वाण को पाता है और जो पुरुष सम्यग्दर्शन से रहित है वह पुरुष ईप्सित लाभ अर्थात् मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता है। 139 ।। उग्गतवेणण्णाणी जं कम्मं खवदि भवहि बहुएहिं । तं णाणी तिहि गुत्तो खवेइ अंतोमुहुत्तेण ॥ 153 अज्ञानी तीव्र तप के द्वारा बहुत भवों में जितने कर्मों का क्षय करता है उतने कर्मों का ज्ञानी मुनि तीन गुप्ति सहित होकर अन्तर्मुहूर्त में ही क्षय कर देता है। सुहेण भाविदं णाणं दुहे जादे विणस्सदि । तम्हा जहाबलं जोई अप्पा दुक्खेहि भावए । 162 ।। सुख से भाया गया ज्ञान है वह उपसर्ग - परीषहादि के द्वारा दुख उत्पन्न होते ही नष्ट हो जाता है, इसलिये यह उपदेश है कि जो योगी - ध्यानी मुनि है वह तपश्चरण आदि के कष्ट सहित आत्मा को भावे । दुक्खे णज्जइ अप्पा अप्पा णाऊण भावणा दुक्खं । भावियसहावपुरिसो विसयेसु विरच्चए दुक्खं । 165 ।।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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