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________________ 130] [जिनागम के अनमोल रत्न तिहुयण सलिलं सयलं पीयं तिहाए पीडिएण तुमे। तो वि ण तण्हाछेओ जाओ चिंतेह भवमहणं ।।23। हे जीव! तूने इस लोक में तृष्णा से पीड़ित होकर तीन लोक का समस्त जल पिया, तो भी तृषा का व्युच्छेद न हुआ अर्थात् प्यास न बुझी, इसलिये तू इस संसार का मंथन अर्थात् तेरे संसार का नाश हो इस प्रकार निश्चय रत्नत्रय का चिन्तन कर। छत्तीस तिण्णि सया छावट्ठिसहस्सबारमरणाणि। अंतोमुहुत्तमज्झे पत्तो सि निगोयबासम्मि।।28।। हे आत्मन् ! तू निगोद के वास में एक अन्तर्मुहूर्त में छ्यासठ हजार तीन सौ छत्तीस बार मरण को प्राप्त हुआ। इस मनुष्य के शरीर में एक-एक अंगुल में छयानवे-छयानवे रोग होते हैं, तब कहो अवशेष समस्त शरीर में कितने रोग कहें।।37 ।। .. इस संसार में चौरासी लाख योनि उनके निवास में ऐसा कोई प्रदेश नहीं है जिसमें इस जीव ने द्रव्यलिंगी मुनि होकर भी भावरहित होता हुआ भ्रमण न किया हो।।47 ।। तुसमासं घोसंतों भावविशुद्धो महाणुभावो य। णामेण य शिवभूई केवलणाणी फुडं जाओ।। . आचार्य कहते हैं शिवभूति मुनि ने शास्त्र नहीं पड़े थे, परन्तु तुष-माष ऐसे शब्द को रटते हुए भावों की विशुद्धता से महानुभाव होकर केवलज्ञान पाया, यह प्रगट है।।53 ।। दब्बेण सयल णग्गा णारयतिरिया य सयलसंघाया। परिणामेण असुद्धा ण भावसवणत्तणं पत्ता।। द्रव्य से बाह्य तो सब प्राणी नग्न होते हैं । नारकी जीव और तिर्यंच जीव तो निरन्तर वस्त्रादि से रहित नग्न ही रहते हैं। सकलसंघात' कहने से अन्य
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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