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________________ मोक्षं लभते इंति व्यवहारैकान्त निराकारण मुख्यत्वेन वाक्य द्वयं गतं। ये पि केवल निश्चय नयावलंबिनः संतोपि रागादि विकल्प रहितं परम समाधिरूपं शुद्धात्मानमलभमाना अपि तपोधनाचरण योग्यं षडावश्यकादि अनुष्ठान श्रावकाचरण योग्यं दानपूजाद्यनुष्ठानं च दूषयते तेप्युभय भ्रष्टाः संतो निश्चय व्यवहारानुष्ठान योग्यावस्थान्तरमजानन्तः पापमेव बध्नन्ति। यदि पुनः । शुद्धात्मानुष्ठान रूपं मोक्षमार्ग तत्साधकंव्यवहार मोक्षमार्ग मन्यते तर्हि चारित्रमोहोदयात् शक्त्यभावेन शुभाशुभानुष्ठान रहिता अपि यद्यपि शुद्धात्मभावनासापेक्ष शुभानुष्ठानरत पुरुषसदृशा न भवन्ति तथापि सराग-सम्यक्त्वादिदान व्यवहार सम्यग्दष्टयो भवन्ति, परंपरया मोक्षं च लभन्ते-इति निश्चयैकान्त निराकरणं मुख्यत्वेन वाक्य द्वयं गतम् । ततः स्थितमेतन्निश्चय व्यवहार परस्पर साध्यसाधक भावेन रागादि विकल्परहित परमसमाधिबलेनैव मोक्षं लभते ॥१७२।। फलितार्थ (जिज्ञासा २ के बारे में ) (मो.मा.प्र.पृ.३२५) — जैसे अणुव्रत, महाव्रत होने पर तो देशचारित्र, सकलचारित्र हो या न हो, परंतु अणुव्रतमहाव्रत हुए बिना देशचारित्र, सकलचारित्र कदाचित् नहीं होता, इसलिए इन व्रतों को अन्वय रूप कारण जानकर कारण में कार्य का उपचार करके इनको चारित्र कहा है। उसी प्रकार अरहंत देवादिक का श्रद्धान होने पर तो सम्यक्त्व हो या न हो, परंतु अरहंतादिक का श्रद्धान हुए बिना तत्त्वार्थश्रद्धान रूप सम्यक्त्व कदाचित् नहीं होता, इसलिए अरहंतादिक के श्रद्धान को अन्वयरूप कारण जानकर कारण में कार्य का उपचार करके इस श्रद्धान को सम्यक्त्व कहा है। इसीसे इसका नाम व्यवहार सम्यक्त्व है। 'अरहंत देवादिक के श्रद्धान से कुदेवादिक का श्रद्धान दूर होने के कारण गृहित मिथ्यात्व का अभाव होता है, उस अपेक्षा इसको सम्यक्त्व कहा है। सर्वथा सम्यक्त्व का लक्षण यह नहीं है, क्यों कि द्रव्यलिंगी मुनि आदि व्यवहार धर्म के धारक मिथ्यादृष्टियों के भी ऐसा श्रद्धान होता है।' - (मो.मा.प्र.पृ.३२५) . इसप्रकार व्यवहार सम्यक्त्व पूर्वचर रूप से (सम्यक्त्व के सन्मुख मिथ्यादृष्टि जीवके) पाया जाने पर ही उसे करणलब्धि पूर्वक अविकल्पस्वरूपोपलब्धि रूप निश्चय सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है, इसी हेतु से व्यवहार को पहले होता है कहा है, परंतु नियामकता नहीं है कि हो ही जायेगा। इसीप्रकार अणुव्रत/प्रतिमाधारी व्रती श्रावक होने पर दो कषायों के अभाव रूप निश्चय श्रावकपना रूप पंचम गुणस्थान हो जाता है, परंतु नियामकता रूप नहीं है कि हो ही जायेगा। इसीप्रकार महाव्रत धारण करने(जिनदीक्षा ग्रहण कर लेने)पर ही सामायिकादि शुद्धोपयोग के काल में तीन कषायों का अभाव होकर अप्रमत्त-प्रमत्तगुणस्थान प्रगट हो जाता है परंतु नियामकता रूप नहीं है कि हो ही जायेगा। जिन जीवों के मिथ्यात्वकर्म के उपशमादि होने पर चतुर्थ अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान,अप्रत्याख्यानावरण कषाय का अभाव होने जम्यो पर पंचम संयमासंयम गुणस्थानं और प्रत्याख्यानावरण कषाय का भी अभाव हो जाने पर सकल संयम(अप्रमत्तादि)सप्तम-षष्ठम गुणस्थान की प्राप्ति हो जाती
SR No.007151
Book TitleDharmmangal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLilavati Jain
PublisherLilavati Jain
Publication Year2009
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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