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________________ ३५ श्रद्धा है सो व्यवहार सम्यक्त्व है। इसप्रकार एक ही काल में दोनों सम्यक्त्व पाये जाते हैं । तथा मिथ्यादृष्टि जीव के देव-गुरु-धर्मादिक का श्रद्धान आभास मात्र होता है । और इसके श्रद्धान में विपरीताभिनिवेश का अभाव नहीं होता। इसलिए यहाँ निश्चय सम्यक्त्व तो है नहीं और व्यवहार सम्यक्त्व भी आभासमात्र है. क्यों कि इसके देव-गुरु-धर्मादिक का श्रद्धान है सो विपरीताभिनिवेश के अभाव को साक्षात् कारण नहीं हुआ। कारण हुए बिना उपचार संभव नहीं है । इसलिए साक्षात् कारण अपेक्षा व्यवहार सम्यक्त्व भी इसके संभव नहीं है । अथवा इसके देव-गुरु-धर्मादिक का श्रद्धान नियमरूप होता है सो विपरीताभिनिवेश रहित श्रद्धान को परंपरा कारणभूत है । यद्यपि नियमरूप कारण नहीं है तथापि मुख्यरूप से कारण है। तथा कारण में कार्य का उपचार संभव है, इसलिए मुख्य रूप परंपरा कारण अपेक्षा. मिथ्यादृष्टि भी व्यवहार सम्यक्त्व कहा जाता है। (मो.मा.प्र. - पृ. ३३१ ) उपरोक्त विवेचन से तथा ( कृपया सराग- वीतराग सम्यग्दर्शन बाबद अन्य आगम प्रमाण६ का विस्तार देखें ।) इस में उद्धृत आगमप्रमाणों से कि वीतराग सम्यग्दर्शन को. क्षायिक सम्यग्दर्शन तथा औपशमिक, क्षायोपशमिक को सराग सम्यग्दर्शन कहा है यह भी भलीभाँति सिद्ध हुआ कि निश्चय - व्यवहार सम्यग्दर्शन आगे-पीछे नहीं वरन् एक ही काल में प्रगट होते हैं। पंचास्तिकाय ता.वृ. १६० टीका में तो स्पष्ट ही लिखा है कि- वीतराग सर्वज्ञ प्रणीत जीवादिपदार्थ विषये सम्यक् श्रद्धानं ज्ञानं चेत्युभयं गृहस्थतपोधनयोः समानं । .... ' ) साध्य-साधन की अपेक्षा से विचार किया जाय तो अवश्य ही यही कहा जायेगा कि व्यवहार साधन है और निश्चय साध्य है। जैसे कि व्यवहार रत्नत्रय साधन और निश्चय रत्नत्रय साध्य है। व्यवहार आचरण पूर्वचर भी होता है और सहचर भी। जब निश्चय साध्य प्रगट हो तब सहचर व्यवहार साधन यथार्थ व्यवहार साधन कहलाता है। व्यवहार मोक्षमार्ग एवं निश्चय मोक्षमार्ग की एवं उनके अवयव सम्यग्दर्शनज्ञान - चारित्र की व्यवहार - निश्चयरूप परिभाषा आपने स्वयं जिज्ञासा १ के समाधान में समयसार गाथा - १५५ ता.वृ. टीका उद्घृत कर दे ही दी है। जो यथार्थ ही है । निश्चय - व्यवहार ये दोनों परिणाम साधक अवस्था में (चतुर्थ पंचम - षष्ठम गुणस्थानों में जहाँ बुद्धिपूर्वक ग्रहण -त्याग का विचार विकल्प वर्तता है) परस्पर सापेक्ष ही होते हैं, अर्थात् युगपत् ही होते हैं । निरपेक्ष हो तो मिथ्या होते हैं। पंचास्तिकाय - गाथा १७२ ता.वृ. टीका में स्पष्ट लिखा है - अथैवं पूर्वोक्तं प्रकारेणास्य प्राभृतस्य शास्त्रस्य वीतरागत्वमेव तात्पर्य ज्ञातव्यं तच्च वीतरागत्वं निश्चय व्यवहार नयाभ्यां: साध्यसाधकरूपेण परस्परसापेक्षाभ्यामेव भवति, मुक्तिसिद्धये न च पुनर्निरपेक्षाभ्यामितिवार्तिकं । तद्यथा-ये केचन विशुद्ध ज्ञानदर्शनस्वभावशुद्धात्मतत्त्वसम्यक् श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूप निश्चय मोक्षमार्ग निरपेक्ष केवल शुभानुष्ठान रूपं व्यवहारनयमेव मोक्षमार्ग मन्यते तेन तु सुरलोकादिक्लेश परंपरया संसारं परिभ्रमंतीति, यदि शुद्धात्मानुभूतिलक्षणम् निश्चयमोक्षमार्गं मन्यते निश्चयमोक्षमार्गानुष्ठांन शक्त्यभावात्रिश्चयसाधकं 'शुभानुष्ठानं च कुर्वन्ति तर्हि सरागसम्यग्दृष्टयो भवन्ति परंपरया
SR No.007151
Book TitleDharmmangal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLilavati Jain
PublisherLilavati Jain
Publication Year2009
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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