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________________ २२ जिज्ञासा ११.- जैनों और जैनेतर मतावलंबियों के आत्मा के विश्वास में क्या कुछ अंतर होता है ? क्यों कि अन्य मतावलंबी भी आत्मा के होने में विश्वास रखते हैं? समाधान- जैनों और जैनेतरों के आत्मविश्वास में जमीन आसमान का अंतर है। जैसे बौद्ध तथा वैशेषिक आत्मा का अभाव होने को मोक्ष मानते हैं, जो जैनमत में बिलकुल गलत है। योगमत वाले आत्मा के बुद्धि, सुख आदि गुणों का नाश होने को मोक्ष मानते हैं जो बिलकुल गलत है। चार्वाक मत वाले आत्मा को पदार्थरूप से स्वीकार ही नहीं करते, पुनर्जन्म को नहीं मानते । सांख्य मत वाले आत्मा को सदा शुद्ध मानते हैं। आत्मा को कर्मों का कर्ता और भोक्ता नहीं मानते, सर्व व्यापक मानते हैं जो नितांत गलत है। ___ . जैनों के अलावा जैनेतर कुछ मत आत्मा का अस्तित्व तो मानते हैं परंतु आत्मा के वास्तविक स्वरूप का परिचय न होने के कारण उसकी कर्मबद्ध, अशुद्ध अवस्था तथा उसके शुद्ध होने के उपायों का सही ज्ञान न होने के कारण अज्ञानी हैं, मिथ्यादृष्टि हैं, उनके आत्मविश्वास रंचमात्र भी नहीं है। उनका आत्मविश्वास गृहित मिथ्यात्व सहित है जब कि जैनियों का उससे रहित है। जिज्ञासा १२.-वह आत्मा जिसका कि जैनों सम्यग्दृष्टियों को विश्वास होता है वह द्रव्यकर्म,नोकर्म,(शरीर),भावकर्म(मोह,राग,द्वेष) से रहित आत्मा होता है या इनके सहित होता है? समाधान- सम्यग्दृष्टि तो द्रव्यकर्म,भावकर्म,नोकर्म रहित शुद्ध आत्मा का ही श्रद्धान करता है पर उस शुद्ध आत्मा की अनुभूति वीतराग परिणति में ही होती है जो कि वीतराग चारित्र के होने पर ही संभव है। जिज्ञासा १३.-अविरत सम्यग्दृष्टि मोक्षमार्गी है या नहीं? यदि है तो उसके चारित्र कौनसा प्रकट हुआ कहलायेगा? मिथ्याचारित्र भी उसके नहीं है? . समाधान- तत्त्वार्थसूत्र के प्रारंभ में आ. उमास्वामी महाराज ने यह सूत्र लिखा है - . ___ - सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणिमोक्षमार्गः। अर्थ- सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र की एकता ही मोक्षमार्ग है । इसकी टीका में आ. पूज्यपाद स्वामी ने लिखा है किसम्यग्दर्शनं सम्यग्ज्ञानं सम्यक्चारित्रमित्येतत् त्रितयं समुदितं मोक्षस्य साक्षान्मार्गो वेदितव्यः। अर्थ - सम्यग्दर्शन,सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों मिलकर साक्षात् मोक्ष का मार्ग है ऐसा जानना चाहिए। इस आगम प्रमाण के अनुसार अविरत सम्यग्दृष्टि मोक्षमार्गी नहीं है। उसके कौनसा चारित्र हुआ इस संबंध में गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा १२ में स्पष्ट कहा है कि - 'चारित्तं णत्थिं जदो अविरद अन्तेसु ठाणेसु।' अर्थ - अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान तक चारित्र नहीं होता है।
SR No.007151
Book TitleDharmmangal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLilavati Jain
PublisherLilavati Jain
Publication Year2009
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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