SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिज्ञासा ८.- प्रायोग्यलब्धि में, करणलब्धि में तथा अनिवृत्तिकरणोपरांत होने वाले आत्मा के विश्वास में क्या अंतर है? समाधान-उपरोक्त दोनों दशाओं में होने वाले आत्मा के विश्वास में अंतर मानना चाहिए। १. प्रायोग्यलब्धि में आत्मविश्वास नहीं होता। यहाँ आत्मविश्वास वचन तक सीमित है। भावरूप नहीं होता। २. करणलब्धि में आत्मविश्वास होना प्रारंभ हो जाता है परंतु मिथ्यात्व का सद्भाव होने के कारण पूर्ण आत्मविश्वास नहीं हो पाता। ३. अनिवृत्तिकरण के उपरांत मिथ्यात्व का उपशम हो जाने के कारण आत्मविश्यास पूर्ण प्रगट हो जाता है। . सच तो यह है कि जब तक मिथ्यात्व का उदय है तब तक तत्त्वश्रद्धानमूलक आत्मविश्वास बिलकूल संभव नहीं है। जिज्ञासा ९. - देशव्रती श्रावक एवं अविरत सम्यग्दृष्टि के आत्मविश्वास में क्या कुछ फर्क होता है? क्यों कि आपके अनुसार आत्मानुभूति मुनि/संयमी को ही होती है? समाधान-यदि सम्यक्त्व समान है तो देशव्रती श्रावक और अविरत सम्यग्दृष्टि के आत्मविश्वास में कोई अंतर नहीं होता हैक्यों कि अप्रत्याख्यानावरण कषाय का अनुदय आत्मविश्वास में कोई विशेषता लाने में समर्थ नहीं है। शुद्ध आत्मतत्त्व की अनुभूति तो वीतराग चारित्र के अविनाभावी वीतराग सम्यक्त्व के काल में ही संभव है। जो मात्र शुद्धोपयोगी मुनियों को ही होती है। जिज्ञासा १०.- आपके हिसाब से मुनिराजों को ही आत्मानुभूति होती है तो गृहविरत श्रावकों (क्षुल्लक,ऐलक,आर्यिका)को भी स्वात्मानुभूति नहीं होती होगी? समाधान-चतुर्थ,पंचम एवं छठे गुणस्थानवर्ती शुभोपयोगी जीवों को आत्मविश्वास मात्र होता है, आत्मानुभूति अथवा आत्मानुभवल्प आनंद नहीं होता। क्यों कि संज्वलन कषाय के मंद उदय में आत्मलीन होने पर ही आत्मानुभूति होती है। जैसा कि उपर के सभी आगम प्रमाणोंद्वारा स्पष्ट किया गया है। आत्मानुभूति, अभेद रत्नत्रय, परमोपेक्षा संयम, शुद्धोपयोग ये सब एकार्थवाची हैं। शुभोपयोग में स्थित मुनिराज को भी शुद्धात्मानुभूति नहीं होती। - श्री परमात्म प्रकाश गाथा १४४ की टीका में कहा है कि - 'मनः शुद्ध्यभावे गृहस्थानां तपोधनवत् शुद्धात्मभावना कर्तुनायातीति। तथा चोक्तंकषायैरिन्द्रियर्दुष्टैः: व्याकुलीक्रियते मनः यतः यतः कर्तुं न शक्यते भावना गृहमेधिभिः। अर्थ-मन की शुद्धि के बिना गृहस्थों को यति के समान शुद्धात्मा की भववनाकरना नहीं बनता है। कहा भी है-कषायों और दुष्ट इन्द्रियों से मन व्याकुल रहता है। इसलिए गृहस्थों को आत्मभावना करना शक्य नहीं है।
SR No.007151
Book TitleDharmmangal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLilavati Jain
PublisherLilavati Jain
Publication Year2009
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy