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________________ सकाशात् भिन्नत्वेन सम्यगवलोकनं निश्चयसम्यक्त्वम्। तेषामेव सम्यकपरिच्छित्तिरूपेण शुद्धात्मनो भिन्नत्वेन निश्चयः सम्यग्ज्ञानम्। तेषामेव शुद्धात्मनो भिन्नत्वेन निश्चयं कृत्वा रागादिविकल्परहितत्वेन स्वशुद्धात्मन्यवस्थानं निश्चयचारित्रमिति निश्चयमोक्षमार्गः। ___ जीवादि नवपदार्थों का विपरीत अभिप्राय से रहित जो सही श्रद्धान है वही सम्यग्दर्शन है। उन्हीं जीवादि पदार्थों का संशय, विमोह, विभ्रम इन तीनों से रहित जो यथार्थ अधिगम होता है निर्णय कर लिया जाता है, जान लिया जाता है वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है और उन्हीं के संबंध से होने वाले जो रागादिक-विभाव होते हैं उनको दूर हटा देना सो सम्यक्-चारित्र कहलाता है। यह व्यवहार मोक्षमार्ग है। हाँ, भूतार्थनय के द्वारा जाने हुए जीवादि पदार्थों को अपनी शुद्धात्मा से पृथक् रूप में ठीक-ठीक अवलोकन करना, निश्चय सम्यग्दर्शन कहलाता है और उन्हीं जीवादि पदार्थों को अपनी शुद्धात्मा से पृथक् रूप में जानना सो निश्चयसम्यग्ज्ञान है और उनको शुद्धात्मा से भिन्न जानकर रागादिरूप विकल्प से रहित होते हुए अपनी शुद्धात्मा में अवस्थित होकर रहना निश्चयसम्यक्चारित्र है। इसप्रकार यह निश्चय मोक्षमार्ग हुआ। जिज्ञासा २ - निश्चय व्यवहार सम्यग्दर्शन एक साथ होते हैं या आगे-पीछे? समाधान - प्रश्न क्र. १ के समाधान में यह स्पष्ट है कि व्यवहार सम्यग्दर्शन साधन है और निश्चयसम्यग्दर्शन साध्य है। इससे यह सिद्ध है कि व्यवहार सम्यग्दर्शन पहले होता है और निश्चय सम्यग्दर्शन बाद में। १.बृहद्र्व्य संग्रह गाथा ४१ की टीका में पृ.१४० में इसप्रकार कहा है'अत्र व्यवहारसम्यक्त्वमध्ये निश्चयसम्यक्त्वं किमर्थं व्याख्यातमिति चेद्-व्यवहारसम्यक्त्वेन निश्चय सम्यक्त्वं साध्यत इति साध्यसाधकंभावज्ञापनार्थमिति।' । अर्थ-यहाँ इस व्यवहार सम्यक्त्व के व्याख्यान में निश्चयसम्यक्त्व का वर्णन क्यों किया जाता है? व्यवहार सम्यक्त्व से निश्चय सम्यक्त्व सिद्ध किया जाता है। इस साध्य-साधक भाव को बतलाने के लिए किया गया है। २.-पंचास्तिकाय गाथा १०७ की टीका में आ. जयसेन ने कहा है-. 'इदंतु नवपदार्थ विषयभूतं व्यवहारसम्यक्त्वं । किं विशिष्टम् । शुद्धजीवस्ति-कायरुचिरूपस्य निश्चयसम्यक्त्वस्य छद्मस्थावस्थायामात्माविषयस्वसंवेदनज्ञानस्य परम्परया बीजम्।' अर्थ-यह जो नवपदार्थ का विषयभूत व्यवहारसम्यक्त्व है वह शुद्धजीवास्तिकाय की रुचिरूप जो निश्चयसम्यक्त्व है उसका तथा छद्मस्थ अवस्था में आत्मविषयक स्वसंवेदन ज्ञान का परंपरा से बीज है। ३.-श्री प्रवचनसार चारित्राधिकार गाथा-२ की टीका में आचार्य अमृतचन्द्रस्वामी न इसप्रकार कहा है
SR No.007151
Book TitleDharmmangal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLilavati Jain
PublisherLilavati Jain
Publication Year2009
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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