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________________ कषायदुर्ध्यानवञ्चनार्थसंसारस्थितिच्छेदनार्थं च दानपूजादिकं कुर्वन्ति तेन कारणेन शुभरागयोगात् सरागसम्यग्दृष्टयो भवन्ति। या पुनस्तेषां सम्यक्त्वस्य निश्चयसम्यक्त्वसंज्ञा वीतरागचारित्राविनाभूतस्य निश्चयसम्यक्त्वस्य परंपरया साधकात्वादिति। वस्तुवृत्त्या तु तत्सम्यक्त्वं सरागसम्यक्त्वाख्यं व्यवहारसम्यक्त्वमेवेति भावार्थः। सम्यक्त्व दो प्रकार का है, एक सराग सम्यक्त्व और दूसरा वीतराग सम्यक्त्व। सराग सम्यक्त्व का लक्षण कहते हैं। प्रशम अर्थात् शांतिपना, संवेग अर्थात् जिनधर्म की रुचि तथा जगत से अरुचि, अनुकंपा अर्थात् परजीवों को दुःखी देखकर दयाभाव और आस्तिक्य अर्थात् देव गुरु धर्म की तथा छह द्रव्यों की श्रद्धा इन चारों का होना वह व्यवहारसम्यक्त्वरूप सराग सम्यक्त्व है। उसके विषयभूत छह द्रव्य हैं। जो वीतराग सम्यक्त्व निजशुद्धात्मानुभूति लक्षण वाला और निश्चय चारित्र के साथ होता है, वही निश्चय सम्यक्त्व है। यहाँ प्रभाकर भट्ट कहते हैं-निजशुद्धात्मा ही उपादेय है। ऐसी रूचिरूप निश्चय सम्यक्त्व का कथन पहले तुमने अनेक बार किया, फिर अब वीतराग चारित्र से तन्मयी निश्चयसम्यक्त्व है, यह व्याख्यान करते हैं, सो यह तो पूर्वापार विरोध है। क्यों कि जो निज शुद्धात्मा ही उपादेय है ऐसी रुचिरूप निश्चय सम्यक्त्व तो गृहस्थ में तीर्थंकर परमदेव भरत चक्रवर्ती और राम पाण्डवादि बड़े-बड़े पुरुषों के रहता है। लेकिन उनके वीतराग चारित्र नहीं है। यही परस्पर विरोध है। यदि उनके वीतराग चारित्र माना जावे तो असंयतपना क्यों कहा? यह प्रश्न किया। उसका उत्तर श्री गुरु देते हैं। उन महान बड़े पुरुषों के शुद्धात्मा उपादेय है, ऐसी भावना रूप निश्चय सम्यक्त्व तो है परन्तु चारित्रमोह के उदय से स्थिरता नहीं है। व्रत प्रतिज्ञा भंग होती है इस कारण से वे तब तक असंयमी कहलाते हैं। शुद्धात्मा की अखंड भावना से रहित हुए भरत, सगर, राघव, पाण्डवादिक निर्दोष परमात्मा अरहंत सिद्धों के गुणस्तवन वस्तुस्तवनरूप स्तोत्रादि करते हैं और उनके चारित्र पुराणादिक सुनते हैं तथा उनकी आज्ञा के आराधक जो महान पुरुष आचार्य,उपाध्याय,साधु उनको भक्ति से आहार दानादि करते हैं ,पूजा करते हैं। विषयकषाय रूप खोटे ध्यान के रोकने के लिए तथा संसार की स्थिति के नाश करने के लिए ऐसी शुभ क्रिया करते हैं। इसलिए शुभराग के संबंध से सराग सम्यग्दृष्टि है और इनके सम्यक्त्व को निश्चयसम्यक्त्व भी कहा जा सकता है, क्यों कि वीतराग चारित्र से तन्मयी निश्चयसम्यक्त्व के परंपरया साधकपना है। वास्तव में विचारा जावें तो गृहस्थ अवस्था में इनके वह सरागसम्यक्त्व कहा जाने वाला व्यवहारसम्यक्त्व व्यवहार व्यवहार ही है ऐसा जानो। ३. समयसार गाथा की टीका पृ. १५८ में इसप्रकार कहा हैजीवादिनवपदार्थानां विपरितानिभिवेशरहिततत्वेन श्रद्धानं सम्यग्दर्शनं । (तेसिमधिगमो णाण) तेषामेव संशयविमोहविभ्रमरहिततत्वेनाधिगमो निश्चयः परिज्ञानं सम्यग्ज्ञानं । रागादीपरिहरणं चरणं)तेषामेव सम्बन्धित्वेन रागादि परिहारश्चरित्रं। (एसो दु मोक्खपहो।) इत्येष व्यवहारमोक्षमार्गः। अथवा तेषामेव भूतार्थेनाधिगतानां पदार्थानां शुद्धात्मनः
SR No.007151
Book TitleDharmmangal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLilavati Jain
PublisherLilavati Jain
Publication Year2009
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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