SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 8 कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना (12) विचारशील-द्यानतराय एक विचारशील व्यक्ति थे; वे योग्य और अयोग्य का विचार करके ही कोई कार्य करते थे; तत्त्व चर्चा और तत्त्व निर्णय के सम्बन्ध में भी वे विचार कर निर्णय करने की बात कहते हैं। उन्होंने अपने पदों द्वारा संसारी जीवों को संसार की असारता पर विवेक-विचार करने को प्रेरित किया है। जैसा कि उन्होंने लिखा है तू तो समझ-समझ रे भाई! निशिदिन विषय भोग लपटाना, धरम वचन न सुहाई।। इसी प्रकार प्रतिकूलताओं में भी मनुष्य को कैसा विवेक-विचार करना चाहिए, उसके लिए वे लिखते हैं कि - काहे को सोचत अति भारी रे मन।। काहे।। पूरब करमन की थित बांधी, सो तो टरत न टारी।। काहे।। सब दरबनि की तीन काल की, विधि न्यारी की न्यारी। केवलज्ञान विर्षे प्रतिभासी, सो-सो द्वै है सारी।। काहे।। (13) धार्मिक-द्यानतराय का जीवन अत्यन्त धार्मिक था। उनके अनुसार मानव जीवन की सार्थकता धर्म को आत्मसात् कर धार्मिक बनने में ही है। धर्म प्राप्ति के लिये हिंसादि (हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह आदि) का त्याग आवश्यक है। साथ ही मद्य-मांस से बचाव एवं पर निन्दा और आत्म प्रशंसा का त्याग भी जरूरी है। देव पूजा आदि षट्कर्मों का पालन एवं साधु-पुरुषों की संगति भी धार्मिक चित्त के लिए अनिवार्य है। सच्चे देव-शास्त्र-गुरु, धर्म आदि को जानकर उन पर श्रद्धान करना, उनके बताए मार्ग पर चलना प्रत्येक धार्मिक व्यक्ति का कर्तव्य है। जैसा कि द्यानतरायजी ने लिखा है - रे मन! भज-भज दीन दयाल ।। रे मन ।। जाके नाम लेत इक छिन मैं, क₹ कोट अधजाल ।। रे मन।। परम ब्रह्म परमेश्वर स्वामी, देखें होत निहाल। सुमरन करत परम सुख पावत, सेवत भाजै काल।। रे मन ।। इन्द्र फनिन्द्र चक्रधर गावें, जाको नाम रसाल। जाको नाम ज्ञान परकासै, नाशै मिथ्याजाल।। रे मन।। जाके नाम समान नहीं कछु, ऊरध मध्य पाताल। सोई नाम जपो नित 'द्यानत' छांड़ि विषय विकराल ।। रे मन।।"
SR No.007148
Book TitleAdhyatma Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNitesh Shah
PublisherKundkund Kahan Tirth Suraksha Trust
Publication Year2012
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy