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________________ कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना इसी तरह उनकी दृष्टि में चर्चाशतक की रचना का उद्देश्य अभिमान या सम्मान की चाह नहीं है, अपितु स्वपर का कल्याण करना है - चरचा मुख सौं भनै सुनै प्रानी नहीं कानन । केई सुनि घर जाहीं नाहीं भाखे फिरि आनन।। तिनि को लखि उपगार सार यह शतक बनाई। पढ़त सुनत ह्वै बुद्धि शुद्ध जिनवाणी गाई।। इसमें अनेक सिद्धान्त कौ, मन्थन कथन द्यानत कहा। सब माहीं जीव को नाम है, जीव भाव हम सरदहा।। (8) आत्मचिन्तक-द्यानतरायजी आत्मचिन्तक, मोक्षाभिलाषी कवि थे, उनके काव्य को पढ़कर यही प्रतीत होता है कि वे आत्मकल्याण के लिए आत्मा को जानना, पहचानना और उसमें लीन होने को ही कार्यकारी मानते हैं। उन्होंने समस्त विकल्पों का त्याग कर एकमात्र आत्मा का चिन्तन करने पर जोर दिया है, क्योंकि आत्मकल्याण के लिए एकमात्र कारण स्वयं को जानना, पहचानना एवं तन्मय होना ही है। (6) भक्त एवं गुणानुरागी-द्यानतराय भक्त एवं गुणानुरागी हैं। वे अपने आराध्य के प्रति पूर्ण समर्पित हैं। उनके आराध्य अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु, जिनवाणी और जिनधर्म आदि हैं; इसलिए वे उन सबके प्रति भक्ति प्रदर्शित करते हुए स्तुति करते हैं। वे स्वयं को अज्ञानी मानकर तीर्थंकर, मुनिराजों को ज्ञानी मानकर उनकी श्रद्धा में भक्ति के गीत गाते हैं - प्रथम देव अरहन्त सुश्रुत सिद्धान्त जु, .. गुरु निरग्रन्थ महन्त मुकतिपुर पन्थ जू । . तीन रतन जगमाहिं सु ये भवि ध्याइये, .. तिनकी भक्ति. प्रसाद परम पद पाइये ।। पूंजौं पद अरहन्त के, पूजौं गुरु पद सार। पूजौं देवी सरस्वती, नित प्रति अष्ट प्रकार।। रत्नत्रय का स्वरूप एवं भक्ति व्यक्त करते हुए द्यानतराय लिखते हैं सम्यक् दर्शन ज्ञान, व्रत शिवमग तीनों मयी। पार उतारन यान, धानत पूजौं व्रत सहित ।। सम्यक् दर्शन ज्ञान व्रत, इन बिन मुक्ति न होय। अन्ध पंगु अरु आलसी, जुदे जले दव लोय।। 23
SR No.007148
Book TitleAdhyatma Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNitesh Shah
PublisherKundkund Kahan Tirth Suraksha Trust
Publication Year2012
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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