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________________ प्रवचनसार गाथा १७२ जिसप्रकार सिद्धदशा में विकार की योग्यता भी नहीं है और निमित्तरूप कर्म भी नहीं है; अतः सिद्धदशा में रूपित्व का उपचार भी नहीं होता है; परन्तु संसारदशा में विकार की योग्यता है, वह रूपी कर्मों के निमित्त बिना नहीं हो सकती है । जीव कर्म के निमित्त बिना का हो तो सिद्ध हो जाय। विकार अशुद्ध पारिणामिक भाव है। जीव स्वयं स्वभाव के आश्रय से च्युत होकर कर्म का आश्रय करता है और विकार करता है; परन्तु कर्म विकार नहीं कराता है; क्योंकि आत्मा तथा कर्म में अत्यंत अभाव है। जड़कर्म को तो ज्ञान भी नहीं है कि मेरा आश्रय करके जीव विकार करता है। जीव विकार करता है, वह तो जीव की भूल है; परन्तु वह जीव का त्रिकाली स्वरूप नहीं है। रूपी के लक्ष बिना विकार नहीं होता है । जीव की ऐसी योग्यता है और रूपी कर्म का संयोग निमित्त है; अतः रूपित्व का उपचार किया गया है। (३) आत्मा में अगंधपना है। __ आत्मा में गंध का अभाव है। सुगंध-दुर्गंध आत्मा में नहीं हैं। (४) आत्मा में अव्यक्तपना है। आत्मा में स्पर्श की व्यक्तता का अभाव है। शीत से उष्ण होना, रूक्ष से चिकना होना, स्थूल से सूक्ष्म होना, हलके से भारी होना, कर्कश से नरम होना – ये सर्व जड़ की अवस्थायें हैं । आत्मा में इस स्पर्श की व्यक्तता का ‘अभाव है। आत्मा में इसप्रकार का कोई गुण नहीं है कि जिसके कारण स्पर्श की व्यक्तता हो। अतः आत्मा अव्यक्त है। (५) आत्मा में अशब्दपना है। ___ आत्मा में शब्दरूप पर्याय का अभाव है। अज्ञानी मानता है कि जिस भाषा के बोलने से जीव का हित हो, वह भाषा बोलना। कठोर भाषा बोलने से जीव के कलुषितता हो; अतः ऐसी वाणी. नहीं निकालना। परन्तु भाई! वाणी निकालना अथवा नहीं निकालना वह जीव के आधीन नहीं है । बाणी स्वतंत्र है और जीव स्वतंत्र है। वाणी से लाभ अथवा हानि नहीं है; परन्तु अज्ञानी को भय लगता है कि इसप्रकार वाणी को स्वतंत्र मानने से तो कोई भी जीव गुरु
SR No.007143
Book TitleAling Grahan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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